Book Title: Jain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Author(s): Minakshi Daga
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 450
________________ 448 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन जानबूझकर कुछ समय के लिए संयम में अपवाद मार्ग का सेवन करने पर पाले हुए संयम में से कुछ दिन या महीनों को कम करना छेद प्रायश्चित है। जान बूझकर पंचमहाव्रतों में से किसी का खण्डन करने पर नवीन दीक्षा देना मूल प्रायश्चित है। क्रूरतापूर्वक अपने या दूसरे पर कठोर घातक प्रहार करने वाले को सम्प्रदाय से पृथक् रखकर घोर तप कराया जाए और फिर नवीन दीक्षा दी जाए, तो वह अनवस्थित प्रायश्चित कहलाता है। शास्त्र विरुद्ध प्ररुपणा करने वाले और साध्वी के व्रत को भंग करने वाले का वेष परिवर्तन कराकर छह मास से बारह वर्ष तक सम्प्रदाय से बाहर रखकर घोर तप करवाकर, गांव-गांव घुमाकर फिर नवीन दीक्षा देना, पाराञ्चित प्रायश्चित कहलाता है। अन्तिम दोनों प्रायश्चित इस काल में नहीं दिये जाते हैं। नियमसार में कहा है, कि व्रत, समिति, शील और संयम का जो परिणाम तथा इन्द्रियों के रोकने का जो भाव है, उसका नाम प्रायश्चित है। 2. विनय : निश्चय से विनय समाधि चार प्रकार की होती है, जैसे कि - जिस गुरु से विद्या सीखी हो, उनको परमोपकारी जानकर, जब वे अनुशासित करते हों तब उनकी शिक्षा को सुनना, सदा सेवा-शुश्रुषा करना एवं उनकी आज्ञा सुनने की इच्छा रखना। गुरु की आज्ञा सुनकर भली प्रकार उसका अर्थ समझना, इसके बाद गुरु की आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन करना एवं श्रुत ज्ञान की आराधना करना। अभिमान न करना एवं आत्म प्रशंसा न करना। अर्थात् गुरु आदि ज्येष्ठ मुनियों, वयोवृद्धों व गुणवृद्धों का यथोचित सत्कार सम्मान करना विनय तप कहलाता है।” विनयतप के सात भेद हैं 1. ज्ञान विनय, 2. दर्शन विनय, 3. चारित्र विनय, 4. मनोविनय, 5. वचन विनय, 6. काय विनय, 7. लोकव्यवहार विनय। नम्रतापूर्वक सम्यक ज्ञान प्राप्त करना, ज्ञान विनय है। तत्त्व की यथार्थ प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन से विचलित न होना दर्शन विनय है। सामायिकादि चारित्र में चित्त का समाधान रखना चारित्र विनय है। उपर्युक्त तीनों प्रकार के विनयों का मनवचन-काय पूर्वक विनय करना क्रमशः मनोविनय, वचनविनय तथा कायविनय है। अपने से ज्ञान-दर्शन-चारित्र में आगे बढ़े हुए एवं गुरुजनों का आदर करना लोक व्यवहार विनय है। 3. वैयावृत्य : अपने आपको काम में लगाकर, सेव्य पुरुषों के लिए आहार, वस्त्र, पात्र, औषधोपचार आदि आवश्यक योग्य साधन जुटाना, पैर दबाना तथा यथायोग्य सेवा करना वैयावृत्य तप है। इसके 10 भेद हैं।" 1. आचार्य वैयावृत्य 2. उपाध्याय वैयावृत्य 3. स्थविर वैयावृत्य 4. तपस्वी वैयावृत्य 5. ग्लान (रोगी) वैयावृत्य 6. शैक्ष वैयावृत्य 7. कुल वैयावृत्य 8. गण वैयावृत्य 9. संघ वैयावृत्य 10. साधर्मिक वैयावृत्य

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