Book Title: Jain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Author(s): Minakshi Daga
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 462
________________ 460 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन पालन कर सकता है। 5. परिग्रह परिमाण व्रत : परिग्रह भी एक बहुत बड़ा पाप है। सामाजिक विषमता, संघर्ष, कलह एवं अशांति का प्रधान कारण परिग्रहवाद ही है। अतः स्व और पर की शांति के लिए अमर्यादित स्वार्थवृत्ति एवं संग्रह बुद्धि पर नियंत्रण रखना आवश्यक है। अशांति का कारण परिग्रह नहीं परिग्रह की इच्छा है। अतः इच्छा को मर्यादित करना ही वास्तविक परिग्रह परिमाण है। श्रावक को परिग्रह में आसक्ति भाव का त्याग करने का प्रयास करना चाहिये। इस व्रत का पालन करने के लिए श्रावक को जीवन में उपयोग ली जाने वाली समस्त वस्तु की सीमा निर्धारण करके उससे अधिक मात्रा में उन वस्तुओं का उपयोग नहीं करना चाहिये।” इस व्रत के सम्यक् पालन के लिए श्रावक को निम्नलिखित पाँच अतिचारों का त्याग करना चाहिये। 1. खेत-वत्थु पमाणाइकम्मे (क्षेत्र वस्तु प्रमाणातिक्रमण) : जीवन पर्यंत के लिए किए गए क्षेत्र तथा वस्तुओं के प्रमाण को बढ़ा लेना। 2. हिरण्णसुवण्णपमाणाइकम्मे (हिरण्यसुवर्ण प्रमाणातिक्रमण) : सोने चाँदी के प्रमाण को बढा लेना। 3. दुप्पय चउप्पय पमाणाइकम्मे (द्विपद चतुष्पद प्रमाणातिक्रमण) : दोपाये और चौपाये प्राणियों सम्बन्धी प्रमाण को बढ़ा लेना। 4. धण-धन्न पमाणाइकम्मे (धन धान्य प्रमाणातिक्रमण) : धन धान्य के प्रमाण को बढ़ा लेना। 5. कुविय पमाणाइकम्मे (कुप्य प्रमाणातिक्रमण) : गृह सामग्री के प्रमाण को बढ़ा लेना। 2. गुणव्रत : अणुव्रतों के विकास के लिए गुणव्रतों का विधान किया गया है। गुणव्रत के द्वारा अणुव्रतों की मर्यादा को और अधिक संकुचित किया जाता है। गुणव्रत अणुव्रतों को सर्व द्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव से मर्यादित करते हैं। 3 गुण व्रतों का विधान किया गया है, जो निम्नलिखित हैं - 1. दिशा परिमाण व्रत, 2. उपभोग परिभोग परिमाण व्रत, 3. अनर्थदण्ड विरमण व्रत। 1. दिशा परिमाण व्रत : मुख्य दिशाएँ तीन हैं - 1. उर्ध्व (ऊँची) दिशा, 2. अधो (नीची) दिशा और 3. तिर्थी दिशा। तिर्की दिशा के चार प्रकार हैं - 1. पूर्व, 2. पश्चिम, 3. उत्तर और 4. दक्षिण। चार तिर्की दिशाओं के सन्धि स्थलों को विदिशा कहते हैं, वे भी चार हैं- 1. अग्निकोण, 2. वायव्यकोण, 3. ईशानकोण, 4. नैऋत्यकोण । इस प्रकार दस दिशाएँ हो जाती हैं। विस्तारपूर्वक दिशाओं की संख्या 18 मानी गई हैं - 4 दिशाएँ, 4. विदिशाएँ, 8. आंतरे तथा ऊर्ध्वदिशा और अधोदिशा। श्रावक सभी दिशाओं में गमनागमन की सीमा निर्धारित करके उस से आगे न जाने का प्रत्याख्यान करता है। मुख्य तीन दिशाओं के सदर्भ में ही परिमाण का

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