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468 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
का पालन करते हुए अन्त में श्रमण रूप जीवन को अपना लेता है। अपने सिर को पूरा मुंडा लेता है। वह श्रमणवेश तथा उपकरणों को धारण कर संयम का पालन करता हुआ साधु जैसा जीवन व्यतीत करता है। इसे ही
श्रमणभूत प्रतिमा कहते हैं।” इन प्रतिमाओं के पालन का उद्देश्य श्रावक के द्वारा धीरे-धीरे श्रमण अवस्था को प्राप्त करना है। जैसा कि ग्यारहवीं प्रतिमा के नाम से ही ज्ञात होता है।
इस प्रकार की 11 प्रतिमाओं को दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं में समान रूप से प्रतिपादित किया गया है, जो कि श्रावक को चरम लक्ष्य की ओर ले जाती हैं।
5. श्रावक पद का अधिकार : जैन धर्म में श्रावक होने के लिए कुछ आवश्यक शर्ते बतायी गई हैं। प्रत्येक गृहस्थ श्रावक नहीं कहला सकता, वरन् विशिष्ट व्रतों को अंगीकार करने वाला गृहस्थ ही श्रावक कहलाता है।
जैन परम्परा के अनुसार श्रावक बनने की योग्यता प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम सात दुर्व्यसनों का त्याग करना आवश्यक है, जो ये हैं -1. जुआ खेलना, 2. मांसाहार, 3. मदिरापान, 4. वेश्यागमन, 5. शिकार, 6. चोरी और 7. परस्त्रीगमन।"
ये सातों ही कुव्यसन जीवन को अधःपतन की ओर ले जाते हैं। इनमें से किसी भी एक व्यसन में फँसा हुआ मनुष्य, प्रायः सभी व्यसनों का शिकार हो जाता है। इनमें से किसी भी व्यसन का सेवन न करने वाला ही श्रावक बनने का पात्र होता है।
श्रावक के 21 गुण : जैन शास्त्रों में श्रावक की 21 विशेषताओं (गुणों) का विवेचन मिलता है - 1. उदार हृदयी
2. यशवन्त 3. सौम्य प्रकृति वाला
4. लोकप्रिय 5. अक्रूर प्रकृति वाला 6. पापभीरु 7. धर्म के प्रति श्रद्धावान 8. चतुर 9. लज्जावान
10. दयाशील 11. मध्यस्थ वृत्तिवाला
12. गम्भीर 13. गुणानुरागी
14. धर्मोपदेशक 15. न्यायी
16. शुद्ध विचारक 17. मर्यादित व्यवहार करने वाला 18. विनयशील 19. कृतज्ञ
20. परोपकारी 21. सत्कार्य में दक्ष।
इन गुणों का धारक श्रावक निश्चित रूप से अपने जीवन निर्माण के साथ समाज और राष्ट्र का भी उत्थान करता है।