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नीति मीमांसा* 467
मिनट) तक आत्मा तथा परमात्मा का ध्यान करना व जीवन में समभाव का आचरण करना सामायिक कहलाता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार सामायिक प्रतिमाधारी श्रावक को यथाजात नग्न होकर सामायिक करनी
चाहिये। 4. पौषध-प्रतिमा : उपर्युक्त तीन प्रतिमाओं से युक्त श्रावक प्रत्येक अष्टमी
और चतुर्दशी को 48 घंटे तक आहार-पानी का पूर्ण त्याग कर धर्माचरण में समय व्यतीत करता है, उसे पौषधप्रतिमा कहा जाता है। 5. कायोत्सर्ग प्रतिमा : पूर्व की समस्त प्रतिमाओं का पालन करता हुआ जो
श्रावक केवल दिन में ही भोजन करता है, ढीले वस्त्र पहनता है तथा पौषधोपवास में एकरात्रि में कायोत्सर्ग प्रतिमा का पालन करता है। श्रावक प्रतिमा की तरह आसन में स्थिर होकर त्रिलोक पूज्य जीत कषाय 'जिन' का ध्यान करता है, अथवा आत्म दोषों को नष्ट करने वाले किसी अन्य
तत्त्व का ध्यान करता है, वह पंचम प्रतिमाधारी है। 6. अब्रह्मवर्जन प्रतिमा : उपर्युक्त पाँच प्रतिमाओं के पूर्ण पालन के बाद
सांसारिक काम भोगों से मुक्ति पा लेना अब्रह्मवर्जन प्रतिमा है। इसे धारण करने वाला श्रावक शृंगारपूर्ण चर्चा, स्त्रियों से अतिपरिचय तथा अपने शरीर की सजावट आदि से दूर रहता है। स्त्रियों के अंगोपांगों को निहारता
नहीं है। कामोत्पादक वीभत्स भावों का पूर्ण त्याग कर देता है। 7. सचित्ताहारवर्जन प्रतिमा : पूर्व प्रतिमाओं के अभ्यास पूर्वक श्रावक कन्द,
मूल, फल, शाक सब्जी, पुष्प आदि सचित्त वस्तुओं के भक्षण का त्याग
करता है, यह सचित्ताहारवर्जन प्रतिमा है। 8. स्वयमारम्भवर्जन प्रतिमा : पूर्व प्रतिमाओं का पालन करता हुआ श्रावक
घर में सदोष कार्य के स्वयं न करने का नियम लेना, स्वयमारम्भवर्जन प्रतिमा है। आवश्यकता पड़ने पर अन्य व्यक्ति के द्वारा गृहकार्य कराया जा
सकता है। 9. परारम्भवर्जन प्रतिमा : श्रावक दूसरे व्यक्तियों के द्वारा भी सदोष गृहकार्यों
को न कराने का जो नियम लेता है, वह परारम्भवर्जन प्रतिमा है। 10. उद्दिष्ट भक्त वर्जन प्रतिमा : इस प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक
अपने निमित्त से बने हुए भोजन का भी त्याग कर देता है। अतः संपूर्ण आरम्भ परिग्रह का त्याग कर देता है। सिर का मुंडन करा देता है। किसी वस्तु के बारे में पूछे जाने पर भी जानता है, तो बताता है, अन्यथा नहीं
बोलता है। 11. श्रमण भूत प्रतिमा : ग्यारहवीं प्रतिमा में श्रावक पूर्व की दश प्रतिमाओं