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नीति मीमांसा* 465
व्रत का उद्देश्य है। इस व्रत के पाँच अतिचार हैं।53 1. अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित शय्या संस्तारक : शैय्या-संस्तारक
(बिछौना) को बिना देखे भाले या असावधानीपूर्वक देखकर करना।। 2. अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित शय्या संस्तारक : बिना झाड़-पोंछ किए अथवा
असावधानीपूर्वक झाड़पोंछ करके शय्या लगाना। 3. अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित उच्चार प्रस्त्रवण भूमि : मल-मूत्र त्यागने
के स्थान का निरीक्षण न करना अथवा अच्छी तरह से न करना। 4. अप्रमार्जित-दष्प्रमार्जित उच्चार प्रस्त्रवण भूमि : मल-मूत्र त्यागने के
स्थान को बिना साफ किए अथवा उपयुक्त प्रकार से बिना साफ किए
उपयोग करना। 5. पौषधोपवास-सम्यगनुपालना : पौषधोपवास का सम्यक् प्रकार से पालन
न करना। 4. अतिथि संविभागवत : अतिथि संविभाग व्रत में सेवा, दान, करुणा और परमार्थ की भावना ही प्रमुख रूप से है। यहाँ अतिथि शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से पंच महाव्रतधारी पंच समिति-तीन गुप्ति के आराधक श्रमण-श्रमणियों के लिए ही हुआ है। इस प्रकार अतिथि को श्रद्धाभावना से विभोर होकर अत्यंत सम्मान के साथ उनके लिए कल्पनीय एषणीय, ग्राह्य, निर्दोष आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन, पीठ फलक-पट्टा, शय्या संस्तारक, औषध, भैषज प्रभृति जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक पदार्थों को देखकर प्रतिलाभित करना। श्रावक ने जो अपने लिए आहार आदि का निर्माण किया है या अन्य साधन प्राप्त किए हैं, उनमें से ऐषणा समिति से युक्त निस्पृह श्रमण-श्रमणियों को कल्पनीय एवं ग्राह्य आहार आदि देने के लिए विभाग करना अतिथि संविभाग है।" इस व्रत के निम्नलिखित पाँच अतिचार हैं। 1. सचित्त निक्षेपण : साधु को देय वस्तु सचित्त पत्र, पुष्प आदि पर रख
देना। 2. सचित्त पिधान : साधु को देने योग्य वस्तु सचेतन पत्र, पुष्प आदि से ढक
देना। 3. कालातिक्रम : साधु के भिक्षार्थ भोजन काल का उल्लंघन कर देना। 4. परव्यपदेश : भिक्षा के लिए अपने घर आए साधु को अपनी वस्तु को
अन्य की बताकर लौटा देना। 5. मात्सर्य : ईर्ष्या व अहंकार की भावना से दान देना।
श्रावक को अत्यंत उदार होना चाहिये। कोई भी अतिथि (साधु-साध्वी) द्वार से खाली निराश न लौटे, यह श्रावक को ध्यान रखना चाहिये।
इस प्रकार श्रावक को इन बारह व्रतों का निरतिचार पालन करना चाहिये। इन