________________
नीति मीमांसा 463
2. प्रमादाचरित : प्रमादपूर्वक किया गया आचरण प्रमादाचरित है। प्रमाद का तात्पर्य है, आलस्य, असावधानी । इसी प्रमाद के कारण ही अधिकांश दुर्घटना रूप हिंसा होती है। अर्थात् प्रमादाचरित का सम्यक् प्रकार से प्रत्याख्यान करके उससे बचा जाए, तो अधिकांश दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है।
3. हिंस्र प्रदान : हिंसादि पापकर्मों में सहायक शास्त्रों को देना हिंस्रप्रदान है। 4. पापकर्मोपदेश : पाप कार्य करने के लिए प्रेरित करना उपदेश देना, पाप कर्मोपदेश है।
व्रती श्रावक इन चार प्रकार के तथा अन्य भी व्यर्थ पापपूर्ण कार्यों का त्यागी होता है। इस व्रत के निम्नलिखित पाँच अतिचार हैं 46
1. कन्दर्प : कामोत्पादक वार्तालाप करना ।
-मजाक करना ।
2. कुक्कुइए : शरीर के अवयवों की कुचेष्टाओं द्वारा हँसी-म 3. मौखर्य : धृष्टतापूर्वक असत्य एवं असम्बद्ध प्रलाप करना, बढ़ा-चढ़ा कर बातें करना ।
4. संयुक्ताधिकरण : बिना आवश्यकता के हिंसक साधनों को संयुक्त रखना । जैसे-बन्दूकल कारतूस, उखल- मूसल आदि ।
5. उपभोग परिभोगातिरिक्त : उपभोग- परिभोग की सामग्री को आवश्यकता से अधिक मात्रा में संग्रहीत करके रखना । जैसे भोजन, वस्त्र आदि ।
इन पाँचों अतिचारों का त्याग करके अनर्थदण्ड विरमण व्रत का सम्यक् प्रकार से पालन करने से मनुष्य की मानसिक, वाचिक एवं कायिक सभी प्रवृत्तियाँ विशुद्ध होती हैं।
-
शिक्षाव्रत : शिक्षा का अर्थ अभ्यास है। जैसे विद्यार्थी पुनः पुनः अभ्यास करता है, उसी प्रकार श्रावक को जिन व्रतों का पुनः पुनः अभ्यास करना चाहिये उन व्रतों को शिक्षाव्रत कहते हैं । अणुव्रत और गुणव्रत जीवन में एक ही बार जीवन पर्यंत के लिए ग्रहण किए जाते हैं, लेकिन शिक्षाव्रत बार-बार ग्रहण किए जाते हैं, क्योंकि वे कुछ समय के लिए ही होते हैं । ये शिक्षाव्रत 4 बताये गए हैं जो निम्नलिखित हैं- 1. सामायिक, 2. देशावकासिक, 3. पौषधोपवास, 4. अतिथि संविभाग । "
147
1. सामायिक : सामायिक का अर्थ है समभाव । जीवन-मरण में, लाभअलाभ में, संयोग-वियोग में, मित्र- शत्रु में तथा सुख-दुःख आदि में समभाव होना सामायिक नाम का व्रत है।148 पं. आशाधर जी सामायिक का विवेचन इस प्रकार करते हैं- " राग-द्वेषादि से आक्रांत न होने वाले अय-ज्ञान को समाय कहते है ।" इस तरह के ज्ञान में अनुभव रूप जो प्रवृत्ति होती है, उसको ही सामायिक कहते हैं । सामायिक का ही दूसरा नाम साम्य भी है। प्रशस्त और अप्रशस्त नाम स्थापना आदि के विषय में क्रम से रागद्वेष न करना इसी को साम्य कहते हैं। श्रावक को सामायिक करने के