Book Title: Jain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Author(s): Minakshi Daga
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 455
________________ नीति मीमांसा * 453 करने का उल्लेख आचारांग सूत्र व वृहत्कल्पसूत्र आदि आगमों में है।'' प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थवर्ती साधुओं के तो प्रमाणोपेत तथा स्वल्पमूल्य वाले श्वेत | वस्त्रों के परिधान करने का ही नियम है, जिसे भी वे केवल धर्मबुद्धि से ही ग्रहण करते हैं, मूर्छापरिणाम या आसक्ति भाव से नहीं, अतः वस्त्रों के सद्भाव में भी इनमें अचेलकता ही है। लेकिन मध्यम तीर्थंकरों के तीर्थवर्ती साधुओं के लिए अचेलकता अनवस्थित है। उन्हें लाल-पीले आदि रंगीन तथा महामूल्यवाले वस्त्रों के त्याग का कोई नियम नहीं है, क्योंकि वे ममता, आसक्ति से रहित ही होते हैं। मुनियों के उद्देश्य से तैयार किए गए भोजन-पान आदि का त्याग करना औद्देशिकी है। जहाँ मुनिजन शय्यादि पिण्ड ग्रहण करें, ठहरें, वहाँ भोजन ग्रहण न करें, यह शय्यातर पिण्ड त्याग है। राजाओं के यहाँ अति स्वादिष्ट भोजन को ग्रहण न करें, यह राजपिण्ड त्याग है। छह आवश्यकों का पालन करना तथा गुरुजनों का विनय करना ही कृतिकर्म है। पाँच महाव्रतों का पालन करना ही महाव्रत है। मुनि, आचार्य आदि जो ज्ञान एवं चर्या में श्रेष्ठ हैं, वे आर्यिका आदि से भी तथा महाराजा, चक्रवर्ती आदि से भी हर प्रकार से ज्येष्ठगुण से युक्त होते हैं। सात प्रकार के प्रतिक्रमण करके आत्म भाव में रमण करना। प्रतिक्रमण द्वारा अपने द्वारा की गई गलतियों की आलोचना करके उनमें सुधार करना। प्रत्येक ऋतु में एक माह तक एक स्थान पर रहना मासकल्प है। पर्युषण कल्प, वर्षा ऋतु में चार माह तक एक ही स्थान पर रहना इस प्रकार स्थितिकल्प के दश भेदों का जिनकल्पी साधु पालन करते हैं। जिस लिंग से जिनकल्पी साधु चारित्र धारण करते हैं, वह चार प्रकार का कहा गया है - नग्नत्व (अचेलकता), लोच, शरीर संस्कार हीनता और पिच्छिका। 10. अनगारी संल्लेखना : प्राणान्तकारी उपसर्ग के आने पर, अन्न-पानी की प्राप्ति न हो ऐसा दुर्भिक्ष पड़ने पर, निरन्तर तपस्या करने से, अतिवृद्धावस्था के कारण अथवा किसी असाध्य रोग हो जाने से शरीर के अत्यन्त ही जीर्ण हो जाने पर जब प्राण बचने की कोई आशा न हो अथवा किसी निमित्त ज्ञान अथवा देव के द्वारा अपनी आयु का अन्तिम समय जानकर साधु को अनशन करके शरीर को कृश करने के साथ-साथ विषयों और कपायों को कश करना संल्लेखना है। संल्लेखना ग्रहण के लिए किसी आचार्य या गुरु अथवा गीतार्थ बड़े साधु की अनुमति लेकर ही श्रमण सर्वप्रथम अपने समस्त साथी श्रमणों से, फिर संघ से व 84 लाख जीवयोनि से अपने पूर्वकृत अपराधों के लिए क्षमायाचना करता है। इसके बाद वह अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम रूप चार प्रकार के आहार का जीवन पर्यंत त्याग कर देता है। संल्लेखना ग्रहण करने वाले साधु के लिए आवश्यक है, कि वह संल्लेखना के अतिचारों (दोषों) से दूर रहकर अपने व्रत का निर्दोष पालन करे।

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