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446 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
2. चतुर्विंशतव : चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति। 3. वन्दना : आचार्य की दशवर्त-वन्दना। 4. प्रतिक्रमण : कृत दोषों की आलोचना। 5. कायोत्सर्ग : काया का स्थरीकरण-स्थिर चिन्तन। 6. प्रत्याख्यान : त्याग करना।
इन आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर सूर्योदय होते-होते मुनि भाण्ड-उपकरणों का प्रतिलेखन करे, उन्हें देखे। उसके पश्चात् हाथ-जोड़कर गुरु से पूछे-मैं क्या करूँ? आप मुझे आज्ञा दें। तब आचार्य यदि सेवा में लगाए तो अग्लान भाव से सेवा करे और यदि स्वाध्याय में लगाए तो स्वाध्याय करे। दिनचर्या के प्रमुख अंग हैं-स्वाध्याय और ध्यान। यह मुनि की जागरुकता पूर्ण जीवन चर्या है।
6. पाँच चारित्र - आत्मा का शुद्धावस्था में स्थिर रहना संयम या चारित्र है। परिणामों की विशुद्धि के तारतम्य (न्यूनाधिकता) की अपेक्षा से संयम के 5 भेद हैं।' 1. सामायिक : समभाव में स्थिर रहने के लिए समस्त सावध (सदोष)
प्रवृत्तियों का त्याग करना सामायिक है। 2. छेदोपस्थापना : प्रथम छोटी दीक्षा लेने के बाद विशिष्ट श्रुत का अभ्यास
कर चुकने पर विशेष शुद्धि के निमित्त जो जीवन पर्यंत के लिए पुनः दीक्षा ली जाती है अथवा दीक्षा में दोष उत्पन्न हो जाने पर उसका छेद कर फिर
नवीन रूप में जो दीक्षा का आरोपण किया जाता है, वह छेदोपस्थापना है। 3. परिहार विशुद्धि : जिसमें विशिष्ट प्रकार के तप प्रधान आचार का पालन
किया जाता है, वह परिहार विशुद्धि है। 4. सूक्ष्म-सम्पराय : जिसमें क्रोधादि कषायों का उदय तो नहीं होता, केवल
लोभ का अंश अति सूक्ष्म रूप में रहता है, वह सूक्ष्म सम्पराय है। 5. यथाख्यात : जिसमें किसी भी कषाय का उदय बिल्कुल नहीं रहता, वह
यथाख्यात अर्थात् वीतराग संयम है। 7. तप : वासनाओं को क्षीण करने तथा समुचित आध्यात्मिक बल की साधना के लिए शरीर, इन्द्रियों और मन को जिन-जिन उपायों से तपाया जाता है, वे सभी तप है। तप दो प्रकार के होते हैं - 1. बाह्य तप तथा 2. आभ्यान्तर तप।"
__ 1. बाह्य तप : जिस तप के द्वारा शरीर एवं इन्द्रियों को नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता है, उसे बाह्य तप कहते हैं। ये बाह्य तप छः प्रकार के होते हैं - 1. अनशन : मर्यादित समय तक या जीवन के अन्त तक सब प्रकार के
भोजन-पान का त्याग करना अनशन है। 2. उनोदरी : अपनी भूख से कम खाना उनोदरी तप है। 3. वृत्ति-संक्षेप : विविध भोज्य पदार्थों के सेवन के लोभ को कम करना