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नीति मीमांसा 445
इन बाईस परीषहों में से कोई भी परीषह उपस्थित होने पर साधु उनको दृढ़तापूर्वक सहन करे, यही साधु की आदर्श आचार संहिता है ।
4. समाचारी : श्रमण संघ के लिए दस प्रकार की समाचारी का विधान है। समाचारी के अन्तर्गत साधु के आचार को सात्विक व संयमित बनाने के लिए निर्देश होते हैं। मुख्य रूप से गुरु के प्रति शिष्यों के शिष्टाचार एवं आदर को समाचारी में निर्देषित किया गया है।
1. आवश्यकी: मुनि उपाश्रय से बाहर जाते समय गुरु से आज्ञा लेकर जाए, कि आवश्यक कार्य के लिए जा रहा हूँ। यह आवश्यकी है।
2. नैषेधिकी : कार्य से निवृत्त होकर आने पर गुरु से कहे, कि मैं निवृत्त हो चुका हूँ। यह नैषेधिकी है।
3. आपृच्छा : अपना कार्य करने की अनुमति लेना ।
4. प्रतिपृच्छा : दूसरों का कार्य करने की अनुमति लेना, प्रतिपृच्छा है।
5. छन्दना : भिक्षा में लाए आहार के लिए साधर्मिक साधुओं को आमंत्रित करना छंदना है।
6. इच्छाकार : कार्य करने की इच्छा जताना, जैसे-आप कहें, तो मैं आपका कार्य करूँ? इसे इच्छाकार कहते हैं ।
7. मिथ्याकार : भूल हो जाने पर स्वयं की आलोचना करना मिथ्याकार है । 8. तथाकार : आचार्य के आदेश को ज्यों का त्यों स्वीकार करना तथाकार
है।
9. अभ्युत्थान : आचार्य यदि गुरुजनों के आने पर खड़े होना सम्मान करना, अभ्युत्थान है।
10. उपसम्पदा : ज्ञान आदि की प्राप्ति के लिए गुरु के समीप विनीत भाव से रहना अथवा दूसरे साधु गणों में जाना उपसम्पदा है ।
यह दशविध समाचारी शिष्य का गुरु के प्रति कर्तव्य या आचार है । "
5. दिनचर्या : आगमों में साधु की दिनचर्या को मोटे तौर पर चार भागों में विभक्त किया है- दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करे, दूसरे में ध्यान, तीसरे में भिक्षाचर्या और चौथे में फिर स्वाध्याय करे ।
इसी प्रकार रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करे दूसरे में ध्यान, तीसरे में नींद ले और चौथे में फिर स्वाध्याय करे ।"
अपर रात्रि में उठकर आत्मालोचना व धर्म जागरिका करना यह चर्या का पहला अंग है । स्वाध्याय, ध्यान आदि के पश्चात् आवश्यक कर्म करना ।
आवश्यक : अवश्य करणीय कर्म छह हैं
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1. सामायिक : समभाव का अभ्यास, उसकी प्रतिज्ञा का पुनरावर्तन |