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408 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
जानना आवश्यक है, जिनमें उनका विकास हुआ। जैन दर्शन में संपूर्ण जगत के विस्तार का जो नक्शा हमें मिलता है, उसका मोटे तौर पर अध्ययन करना आवश्यक
है।
जैन दर्शन में जगत के स्वरूप एवं विस्तार का निरूपण अन्य दर्शनों की अपेक्षा भिन्न रूप से किया गया है। यद्यपि कुछ स्थानों पर समानता भी परिलक्षित होती है। जैन दर्शन में जो लोकस्वरूप का विवेचन हुआ है, उसके अध्ययन के पश्चात् ही हम तुलनात्मक अध्ययन करेंगे। जैन दर्शन में यह जगत अकृत्रिम, नित्य और प्रलय से रहित माना गया है। आदि पुराण में जगत की आकृति दोनों पैर फैलाकर और कमर पर दोनों हाथ रखकर खड़े हुए पुरुष के समान बतायी गई है।" (परिशिष्ट 7)
यह जगत अपने आप बना हुआ है और अनन्त आकाश के ठीक मध्य में स्थित है। यह उत्पत्ति, स्थिति और नाशमान पर्यायों वाले द्रव्यों से भरा हुआ है। घनोदधि, धनवात और तनुवात इन तीन प्रकार के विस्तृत वातवलयों से घिरा हुआ है। इन वातवलयों के कारण यह लोक रस्सियों से बने हुए छींके के तुल्य प्रतीत होता है। लोक के तीन भाग हैं- अधोलोक, मध्यलोक और उर्ध्वलोक। अधोलोक वेत्तासन के समान नीचे विस्तृत और ऊपर संकीर्ण हैं। मध्य लोक झल्लरी (झालर) के समान सभी ओर से विस्तृत है तथा उर्ध्वलोक मृदंग के समान बीच में चौड़ा तथा दोनों भागों में संकीर्ण है।
मध्यलोक के मध्य में जम्बूद्वीप है, जो लवण समुद्र से घिरा हुआ है। लवणसमुद्र के चारों ओर घातकी खण्ड नामक महाद्वीप स्थली का आकार गोल है और इसके बीच में नाभि के समान सुमेरु पर्वत है। यह मेरु एक लाख योजन विस्तार वाला है। एक हजार योजन तो पृथ्वीतल के नीचे है और शेष निन्यानवे हजार योजन पृथ्वीतल के ऊपर है। मेरु या सुमेरु के ऊपर उर्ध्वलोक, मेरु से नीचे अधोलोक और मेरु की जड़ से चोटी पर्यन्त मध्यलोक है।
घातकी खण्ड को कालोदधि समुद्र वेष्टित किए हुए है। अनन्तर पुष्करवर द्वीप, पुष्करवर-समुद्र आदि असंख्यात द्वीप समुद्र है। पुष्करवर द्वीप के मध्य में मानषोत्तर पर्वत है, जिससे इस द्वीप के दो भाग होते हैं। अतः जम्बूद्वीप, घातकीखण्ड और पुष्करार्द्ध द्वीप मनुष्य क्षेत्र कहा गया है। तात्पर्य यह है, कि ढाई द्वीप और दो समुद्र मनुष्य क्षेत्र के अन्तर्गत हैं। (परिशिष्ट-8)
आठवें नन्दीश्वर द्वीप में अत्यन्त स्वच्छ जल से परिपूर्ण नन्दोत्तरा आदि वापिकाएँ हैं, जिनका जल आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के राज्याभिषेक के समय व्यवहार में लाया गया था। क्षीर समुद्र, नन्दीश्वर समुद्र तथा स्वयंभूरमण समुद्र का जल भी स्वर्ण कलशों में भरकर राज्याभिषेक के लिए लाया गया था। इस द्वीप का विस्तार तिरेसठ करोड़ चौरासी लाख योजन बताया गया है। नन्दीश्वर द्वीप की बाह्य परिधि दो