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तत्त्व मीमांसा*411
खण्ड और पुष्करार्द्ध द्वीप के अन्तर्गत ही सातों द्वीप समाविष्ट हो जाते हैं। यद्यपि क्रौञ्च द्वीप का नाम दोनों ही मान्यताओं में समान रूप से आया है, पर स्थान निर्देश की दृष्टि से दोनों में भिन्नता है।
बौद्ध परम्परा में केवल चार द्वीप ही माने गये हैं। वे मानते हैं, कि समुद्र में एक गोलाकार सोने की थाली पर स्वर्ण भरा सुमेरुगिरि स्थिति है। सुमेरु के चारों ओर सात पर्वत और सात खण्ड हैं। उन सात स्वर्णमय पर्वतों के बाहर क्षीर सागर है और सागर में 1. कुरु, 2. गोदान, 3. विदेह और 4. जम्बू नामक चार द्वीप अवस्थित हैं।” इन द्वीपों के अतिरिक्त छोटे-छोटे दो हजार द्वीप और भी पाये गये हैं।
जम्बूद्वीपः
जैन परम्परा में जम्बूद्वीप का विशेष महत्व है। जम्बूवृक्ष के कारण इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा। इसका आकार गोल है और मध्य में नाभि के समान मेरु पर्वत स्थित है। इस द्वीप का विस्तार एक लाख योजन और परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताइस योजन तीन कोष एक सौ अट्ठाईस धनुष साढे तेरह अंगुल बताई गयी है। जम्बूद्वीप का घनाकार क्षेत्र सात सौ नब्बे करोड़ छप्पन लाख चौरानवे हजार एक सौ पचास योजन है।
जम्बूद्वीप के अन्तर्गत देवकुरु और उत्तर कुरु नामक दो भोग भूमियाँ बतलायी गई हैं। उत्तरकुरु की स्थिति सीतोदा नदी के तट पर है। यहाँ धरणी नाम का सरोवर है। यहाँ के निवासी मंगलावती नामक विशाल भवन में सभाएँ करते हैं। इनकी इच्छाओं और समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति कल्पवृक्षों से होती है। वहाँ दस प्रकार के कल्पवृक्ष, वस्त्र, आभूषण, वाद्य, भोजन आदि समस्त पदार्थ प्रदान करते हैं। यहाँ के मनुष्य स्वभाव से कोमल और भद्र परिणामी होते हैं । अकाल मृत्यु यहाँ नहीं होती। पूर्ण आयु समाप्त करके स्वर्ग प्राप्त करते हैं।
तुलनात्मक समीक्षा :
उत्तर कुरु का उल्लेख महाभारत, विष्णुपुराण, वामनपुराण, ब्रह्माण्ड पुराण आदि ग्रन्थों में भी मिलता है। महाभारत के अनुसार उत्तरकुरु मेरु के उत्तर में स्थित है। जो बालुकार्णव के समीप है और जहाँ हिमवन्त को पार कर पहुंचते हैं। मेरु के पूर्व में सीता और पश्चिम में वंक्षु नदीयाँ प्रवाहित होती हैं।
रामायण और महाभारत के मत में यह स्थान मणिमय और काञ्चन की बालुका के समीप हैं। यहाँ हीरक, वैडूर्य और पद्मराग के जैसे रमणीय भूखण्ड हैं। यहाँ कामफलप्रद वृक्ष समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं। क्षीरी नामक वृक्ष से क्षीर टपकता है और फल के गर्भ में वस्त्र और आभूषण उत्पन्न होते हैं। यहाँ की पुष्करिणी पंकशून्य एवं मनोरम है। चक्रवाक-चक्रवाकी के समान दम्पत्ती एक काल में जन्म ले समभाव से वृद्धिगत होते हैं। वे एकादश सहस्रवर्ष पर्यन्त जीवित रहते हैं और एक