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नीति मीमांसा* 441
रजोहरण, वस्त्र-पात्र आदि। जो संयम रक्षार्थ थोड़े समय के लिए ग्रहण की जाती है, वह 'औपग्रहिक' उपधि कहलाती है। यथा-पाट-पाटला, शय्या आदि।
__किसी सूक्ष्म या स्थूल जीव की हिंसा न हो, इसलिए इसमें वस्तुओं की प्रतिलेखना के 25 प्रकार बताए गए हैं, कि किस प्रकार वस्त्रों की सब तहों को खोलकर देखना चाहिये कि, जीव तो पैदा नहीं हो गए। जो वस्तुएँ कम काम में आती हैं, उनकी प्रतिलेखना करना अधिक आवश्यक होता है।
आदान-निक्षेप समिति के चार भेद हैं : 1. द्रव्य से : वस्तुओं को यतनापूर्वक ग्रहण करें और ध्यान पूर्वक रखें। 2. क्षेत्र से : अपनी वस्तुओं को गृहस्थ के घर रखकर विहार न करें। 3. काल से : प्रातःकाल और सांयकाल दोनों समय वस्त्र-पात्रादि की
प्रतिलेखना करें व मन को उसी में लगावें। 4. भाव से : उपकरणों पर ममत्व न रखते हुए उपयोग पूर्वक ग्रहण करें और
रखें। 5. परिस्थापनिका समिति : त्यागने योग्य मल-मूत्र, खंखरा, नाक का मैल, शरीर का मैल, न खाने योग्य आहार, जीर्ण वस्त्रादि उपधि, मृत शरीर अथवा इसी प्रकार की अन्य कोई वस्तु जो परठने योग्य हो, इन सबको यतनापूर्वक दस विशेषणों वालेस्थण्डिल में परठे, इसे ही परिस्थापनिका समिति कहते हैं।
परिषह-जय : श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं, कि हे आयुष्मन् जम्बू! काश्यप गोत्रीय, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने बाईस परीषह कहे हैं, जिन्हें सुनकर उनके स्वरूप को जानकर, परिचित होकर और जीतकर, साधु भिक्षाचर्या में जाते हुए, उन परीषहों के उपस्थित होने पर, संयम से विचलित न होवे।
कर्म बन्धन के क्षय के लिए जो जो स्थिति समभावपूर्वक सहन करने योग्य है, उसे परिषह कहते हैं। परिषह साधु की कसौटी है। इनको सहन करके जो मोक्षमार्ग से चलायमान नहीं होता, वह अपने कर्मों की निर्जरा करता हुआ, अपना कल्याण करता है। ये परिषह निम्नलिखित हैं :
1. दिगिंछा (क्षुधा) परीषह : भूख से शरीर के पीड़ित होने पर भी, संयम
बल वाले, तपस्वी साधु फलादि का स्वयं छेदन नहीं करे, दूसरों से छेदन नहीं करवावे, अन्न आदि स्वयं न पकावे, दूसरों से न पकवावे। क्षुधा परीषह से शरीर अत्यंत कृश एवं दुर्बल हो जाए, तो भी, आहार-पानी की मर्यादा को जानने वाला साधु, मन में दीनता का भाव न लाता हुआ दृढ़ता
के साथ संयम मार्ग में विचरे, नवकोटि से विशुद्ध आहार ही ग्रहण करे। 2. पिपासा परीषह : पिपासा अर्थात् प्यास सहन करना। प्यास से पीड़ित