Book Title: Jain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Author(s): Minakshi Daga
Publisher: Rajasthani Granthagar

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Page 424
________________ 422 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन जैन संस्कृति : भारत की तीनों प्रमुख विचारधाराओं (जैन, बौद्ध और वैदिक) ने मानवीय उन्नति और विकास के सन्दर्भ में एक ऐसा युग स्वीकार किया है, जबकि मानव को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी प्रकार का श्रम नहीं करना पड़ता था। उसकी सभी इच्छाएँ और आवश्यकताएँ कल्पवृक्षों से ही पूर्ण हो जाती थीं। इस युग को सभी ने भोग युग कहा है। जैन विचारधारा ने इस भोग युग को तीन कालों (आरों) में विभक्त किया। प्रथम व द्वितीय आरे में कल्पवृक्षों की प्रचुरता थी। लेकिन तृतीय आरे के अन्त में कल्पवृक्षों की न्यूनता होने लगी। उपलब्ध साधनों से मानव की आवश्यकताएँ पूरी नहीं होती थीं और उनमें वस्तुओं के लिए संघर्ष होने लगा। इस संघर्ष को नियंत्रित करने के लिए जो नियम कुलकरों (कुल या कबीले के प्रमुख) ने निर्धारित किए, वे जैन दृष्टि से नीति के प्रथम सिद्धान्त थे। प्रारंभ में वे तीन प्रकार के थे - 1. हाकार नीति : प्रथम कुलकर विमलवाहन ने यह 'शब्द-प्रताड़ना' का दण्ड निर्धारित किया। _ 'ह इत्यधिक्षेपार्थस्तस्य करणं हाकारः।" अर्थात् जो व्यक्ति नियम को तोड़ता उससे कहा जाता 'हा! तुमने यह क्या किया?' इससे वह व्यक्ति लज्जित हो जाता। 2. माकार नीति : जब हाकार नीति प्रभावहीन होने लगी, तो तीसरे कुलकर यशस्वी ने 'माकार' दण्डनीति का प्रचलन किया, जिसका अभिप्राय था-ऐसा कार्य मत करो। जैसाकि स्थानांग वत्ति में उल्लेख है "मा इत्यस्य निषेधार्थस्य करणं अभिधानं माकारः। 3. धिक्कार नीति : उपर्युक्त दोनों नीतियों के बावजूद अव्यवस्था व संघर्ष बढ़ते जा रहे थे। अतः पाँचवे कुलकर प्रसेनजीत ने धिक्कार नीति का प्रचलन किया अपराधी से कहा जाता-धिक्कार है, तुमने ऐसा कार्य किया। उस युग में मानव का स्वभाव सरल और कोमल था। अतः उनके लिए धिक्कार शब्द ही दण्ड के रूप में काफी था। इस प्रकार जैन दृष्टि से यह नीति का प्रारम्भ था, जो तीसरे आरे के अन्तिम चरण में, इस युग के मेधावी पुरुषों-कुलकरों द्वारा मानव समाज पर लागू की गई थी। वास्तविक रूप में इसके पश्चात् विश्व के प्रथम कुशल प्रशासक, नीति और धर्म-प्रवर्तक के रूप में ऋषभदेव जी जाने गए। वे प्रथम राजा, प्रथम केवली एवं प्रथम तीर्थंकर थे। उनके समय से ही कर्मयुग का प्रारंभ हुआ। कला-कौशल, ज्ञानविज्ञान और असि, मसि व कृषि का प्रारंभ भगवान ऋषभदेव जी ने ही किया। मानव को कर्म करने की शिक्षा दी। सर्वप्रथम राजनीति, न्याय, दण्डनीति आदि के नियम

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