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434 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
की वृद्धि के लिए दर्शन की वृद्धि तथा सुरक्षा के लिए तथा चारित्र पालन के लिए आवागमन आवश्यक है, क्योंकि एक स्थान पर रहने से उस स्थान से साधु को लगाव हो सकता है। शारीरिक बाधाओं की निवृत्ति
(मल-मूत्र त्याग) के लिए जाना भी चरित्रालंबन में ही आता है। 2. मार्ग शुद्धि : साधु को ऐसे मार्ग से विहार करना चाहिये, जहाँ से
आवागमन चलता हुआ हो, इससे जीव हिंसा भी नहीं होती व स्वयं की
सुरक्षा भी रहती है। दुष्कर मार्ग से जाना साधु के लिए वर्जित है। 3. काल शुद्धि : साधु को दिन में ही विचरण करना चाहिये। रात्रि में
विचरण करने से जीव हिंसा हो सकती है। रात्रि में शारीरिक निवृत्ति के लिए जाना हो तो दिन में देखे हुए रास्ते में रजोहरण से रास्ते को साफ
करते हुए चलना होता है, जिससे जीव हिंसा न हो : 4. यतनाशुद्धि : ध्यान पूर्वक चलना यतना शुद्धि है। इसके चार भेद हैं - अ. द्रव्य : नीची दृष्टि रखकर चलना। ब. क्षेत्र : देह प्रमाण भूमि देखते हुए चलना। स. काल : रात्रि में प्रमार्जन (रास्ता साफ) करते हुए चलना। द. भाव : मार्ग में चलते समय अन्य विचारों को हटाकर चलने से हिंसा की
सम्भावना नहीं रहती है। साधु को मार्ग में चलते हुए अग्रलिखित दस
कार्य नहीं करने चाहिए। 1. शब्द : वार्तालाप करना। 2. रूप : रमणीय वस्तुएँ, खेल तमाशे, शृंगार आदि देखना। 3. रस : रसों का स्वाद करना। 4. गंध : सुगंधित वस्तुएँ सूंघना। 5. स्पर्श : शीत, उष्ण या मृदु स्पर्शों में चित्त लगाना। 6. वाचन : पठन करना। 7. पृच्छा : प्रश्न करना। 8. परिवर्तना : पढ़े हुए की आवृत्ति करना। 9. अनुप्रेक्षा : चिन्तन करना। 10. धर्म कथा : उपदेश देना।
इर्या समिति के चलते हुए श्रमण से कोई जीव हिंसा हो जाए, तो वह दोषी नहीं माना जाता, क्योंकि वह अपनी तरफ से अहिंसा का पालन कर रहा था। जो ईर्या समिति से नहीं चलते, उनसे हिंसा हो या न हो, किन्तु उन्हें दोष लगता है।
2. भाषा समिति : साधु जीवन में गमनागमन के पश्चात् दूसरी आवश्यक क्रिया बोलने की या भाषा की है। मौन रहना गुप्ति है। विवेक पूर्वक सत्य, हित-मित