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तत्त्व मीमांसा * 389
हैं। रागादि भाव चिद्विकार कहे जाते हैं, जो अज्ञानी जीवों में ही होते हैं। अतः अज्ञानी जीव के ही राग-द्वेष मोह रूप आस्रव होते हैं।
सम्यग्दृष्टि जीव के रागादि भावास्रव नहीं होते। अतः उनके आस्रवों से होने वाले बन्धन भी नहीं होते। सम्यग्दृष्टि जीव नवीन कर्मों को नहीं बाँधता है तथा सत्ता में विद्यमान पूर्वबद्ध कर्मों को जानता मात्र है। ज्ञानी जीव के रागादि भावास्रव का अभाव हो जाता है तथा द्रव्यास्रव तो ज्ञानी के स्वयमेव ही भिन्न ही है, क्योंकि द्रव्यास्रव पुद्गल परिणाम है और ज्ञानी चैतन्य स्वरुप होता है। ज्ञानी के पूर्वबद्ध द्रव्यास्रव मिट्टी के ढेले के समान है, जो मात्र कार्माण शरीर के साथ ही बंधे हुए हैं, जीव के साथ नहीं। अतः शरीर के नष्ट होते ही वह पूर्ण मुक्त हो जाता है।
इस प्रकार के सम्यग्ज्ञानी के मात्र योग से होने वाला आस्रव ईर्यापथ आस्रव कहलाता है, जो कषाय से सम्बद्ध न होने के कारण आगे बन्धन नहीं कराता। इसके विपरीत अज्ञानी जीवों के जो कषायानुरंजित योग से होने वाला साम्परायिक आस्रव होता है, जो बन्ध का हेतु बनकर संसार की वृद्धि करता है। पर भव में शरीरादि के प्राप्ति के लिए आयु कर्म का आस्रव वर्तमान आयु के त्रिभाग में होता है। शेष सात कर्मों का आस्रव प्रति समय होता रहता है।
साम्परायिक आस्रव दो प्रकार के कहे गए हैं --पूण्यास्रव तथा पापात्रव। 1. पुण्यास्रव : प्रशस्त राग, अनुकम्पा, परिणति तथा चित्त की अकलुषता __ आदि परिणामों से पुण्य का आस्रव होता है। 2. पापास्रव : अधिक प्रमादवाली चर्या, कलुषता, विषयों के प्रति आसिक्त,
पर को कष्ट पहुँचाने और पर को अपशब्द बोलने से पाप का आस्रव
होता है।
आस्रव के 42 भेद : आस्रव के इन्द्रिय, कषाय, अव्रत, क्रिया और योग - ये पाँच मूल भेद हैं। इनके क्रमशः पाँच, चार, पाँच, पच्चीस और तीन भेद हैं। ये सब मिलकर आस्रव के 42 भेद हो जाते हैं।
1. पाँच इन्द्रियों के आस्रव : पाँच इन्द्रियों को यहाँ आस्रव कहा गया है। इसका अभिप्राय यह है, कि इद्रियों द्वारा ग्राह्य शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में राग-द्वेष रूप प्रवृत्ति करने से जो कर्म का आस्रव होता है, वह इन्द्रिय आस्रव है। स्वरूप मात्र से तो कोई इन्द्रिय कर्मबन्ध का कारण नहीं होती और न इन्द्रियों की रागद्वेष रहित प्रवृत्ति ही कर्म बंध का कारण होती है। जैसे-श्रोत्रेन्द्रिय का स्वभाव है, कि वह शब्द को ग्रहण करे। यह तो संभव नहीं, कि श्रोत्रेन्द्रिय शब्दों को ग्रहण ही न करे। श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा ग्रहण किये जाने वाले मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों में राग भाव और द्वेष करने से ही श्रोत्रेन्द्रिय-आस्रव होता है। ऐसा ही अन्य इन्द्रियों के सम्बध में भी होता
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