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तत्त्व मीमांसा* 393
कषाय और संज्ञाओं का निग्रह करता है, ऐसे सुख-दुःख के प्रति समभाव वाले के शुभ-अशुभ कर्म का आस्रव नहीं होता है। जो सर्वथा निवृत्त आचरण करता है, उसके वास्तव में पुण्य और पाप नहीं होते, जिससे उसके शुभाशुभ भाव द्वारा होने वाले कर्मों का संवर होता है। अर्थात् संवर राग-द्वेष आदि आस्रव को रोककर आगामी कर्मों के आगमन को रोक देता है।
संवर आस्रव का विरोधी है। आस्रव अनादिकालीन अज्ञान के कारण होता है, अतः अनादि है। इस अनादि आस्रव का अन्त पाँच आस्रव द्वारों 1. मिथ्यात्व, 2. अविरति, 3. प्रमाद, 4. कषाय एवं 5. योग, के निषेध द्वारा ही संभव है। इस प्रकार से आस्रव निरोध का प्रयास जीव तभी कर सकता है, जबकि उसे तत्त्व का सम्यग्ज्ञान हो, आत्मा तथा अनात्मा का भेद ज्ञान हो। शुद्ध आत्मा को जानता हुआ जीव शुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है तथा अशुद्ध आत्मा को जानता हुआ जीव अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है। जीव उपयोग लक्षण वाला है। अतः जीव के लिए उपयोग तथा अन्य भावों में भेद को जानना आवश्यक है। उपयोग उपयोग में ही है, क्रोधादि में कोई उपयोग नहीं है, निश्चय से क्रोध में ही क्रोध है, उपयोग में क्रोध नहीं है, आठ प्रकार के कर्म तथा शरीर रूप नोकर्म में उपयोग नहीं है तथा उपयोग में कर्म तथा नोकर्म नहीं है। इस प्रकार का सम्यग्ज्ञान जब जीव को हो जाता है, तब वह शुद्धोपयोग में स्थित हो जाता है तथा विभाव परिणमन का अभाव रूप संवर हो जाता है। अर्थात् जीव ज्ञान चेतन्य रूप को धारण करके राग-द्वेष-मोह आदि आस्रवों को भेद विज्ञान रूपी तीक्ष्ण छैनी से पृथक् कर अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाता है।
जीव को तत्त्वों का सम्यग्ज्ञान हो जाने पर ही वह सम्यग्चारित्र को अपनाकर व्यवहार में आस्रव निरोध करके संवर करता है। सम्यग्ज्ञानी अपने मन, वचन और काय की क्रियाओं को आत्मोन्मुखी बनाता है। चुंकि मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को सर्वथा रोकना तो संभव नहीं है। शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आहार करना, मलमूत्र का विसर्जन करना, चलना-फिरना, बोलना, रखना, उठाना आदि क्रियाएँ करना ही पड़ती है। अतः जितने अंशों में मन, वचन और काय की क्रियाओं का निरोध है, उतने अंश को गुप्ति कहते हैं। गुप्ति अर्थात् रक्षा। मन, वचन
और काय की अकुशल प्रवृत्तियों से रक्षा करना। यह गुप्ति ही संवरण का साक्षात् कारण है। गुप्ति के अतिरिक्त समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह जय और चारित्र आदि से भी संवर होता है। समिति आदि में जितना निवृत्ति का अंश होता है, उतना संवर का कारण होता है और प्रवृत्ति का अंश शुभ बन्ध का हेतु होता है। भेदज्ञानी अपने आचरण को अधिक निवृत्ति परक बना सकता है।
समिति : समिति अर्थात् सम्यक् प्रवृत्ति, सावधानी से कार्य करना। समिति पाँच प्रकार की है। 1. ईर्या समिति-चार हाथ आगे देखकर चलना। 2. भाषा समिति -