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398 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
अविरति में समावेश कर दिया गया।
भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से बन्ध के कारणों की संख्या में अन्तर होते हुए भी तात्विक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। कषाय और योग, इन दो हेतुओं के कथन की परम्परा किसी एक ही कर्म में सम्भावित चार अंशों के कारण का पृथक्करण करने के लिए है। प्रत्येक कर्म-बन्ध में चार अंशों का निर्माण होता है- 1. प्रकृति, 2. स्थिति, 3. अनुभाग और प्रदेश। इन चार अंशों में से प्रकृति और प्रदेश बंध का हेतु योग होता है तथा स्थिति एवं अनुभाग बंध का हेतु कषाय होता है। इस दृष्टि से कषाय एवं योग को बंध का हेतु कहा गया है।
निश्चय दृष्टि से तो मन-वचन-काय जनित योग भी बंध का कारण नहीं है, वरन् रागादि भाव ही बंध का कारण है। रागादि से मुक्त सम्यग्दृष्टि जीव के बन्ध नहीं होते। लेकिन मिथ्या-दृष्टि जीव के उपयोग में रागादि भाव होने से उसके कर्मों का आस्रवण रूप बन्ध होता है। रागादि से युक्त होकर जीव विविध चेष्टाएँ करता हुआ उसी प्रकार कर्म बन्धन को प्राप्त करता है, जिस प्रकार शरीर पर तेल मला हुआ व्यक्ति मिट्टी में व्यायामादि करता है, तब मिट्टी से लिप्त हो जाता है। फिर तेल रहित होकर वही व्यक्ति मिट्टी में व्यायामादि करता है, तब उससे लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार राग रहित उपयोग होने पर जीव विविध कर्म करता हुआ भी बन्धन को प्राप्त नहीं करता है। अर्थात् कषाय ही बन्ध का मूल कारण है।
जीव में शुभ अथवा अशुभ कर्मों के प्रति उत्पन्न हुआ मिथ्या अहंकार ही बन्ध का कारण है। इसे अध्यवसाय कहते हैं। कोई भी जीव वास्तव में परजीव का कुछ भी भला या बुरा नहीं कर सकता है। अन्य जीवों के अपने कर्मों के उदय से ही उन्हें मृत्यु अथवा जीवन मिलता है, लेकिन मिथ्या-दृष्टि जीव का यह भाव कि 'मैंने उसे मारा।' अथवा 'मैंने उसे जीवन दान दिया।' ऐसा मिथ्या अहंकार ही शुभ अथवा अशुभ कर्मों का बन्धन करता है। प्राणातिपात (हिंसा), मृषावाद (असत्य), अदत्तादान (चोरी), मैथुन व परिग्रह विषयक किया गया अध्यवसाय (मिथ्या-अहंकार) पाप का बन्ध कराता है। इसके विपरीत पंच महाव्रत रूप अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, एवं अपरिग्रह विषयक किये गए अध्यवसाय से पुण्य का बन्ध होता है।
बन्ध दो प्रकार के होते हैं- 1. भाव बन्ध तथा 2. द्रव्य बंध। जिस राग-द्वेष मोह आदि विकारी भावों से जीव के जो भाव होते हैं, उन भावों के द्वारा परिणमन करता हुआ जीव भाव बन्ध करता है। फिर उन्हीं कषायों के कारण जब कर्म-पुद्गलों का आत्मप्रदेशों से सम्बन्ध होता है, वह द्रव्य बन्ध कहलाता है।
प्रत्येक कर्म-बंध में चार अंशों का निर्माण होता है- प्रकृति बंध, अनुभाग बंध स्थिति बंध और प्रदेश बंध। ये चार ही बंध के भेद हैं। जैसे गाय आदि के द्वारा खाई हुई घास आदि वस्तुएँ जब दूध के रूप में परिणत होती है, तब उसमें मधुरता का