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400 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
परमाणुओं से बने हुए कर्म पुद्गलों को ग्रहण नहीं करता, अपितु अनन्त परमाणु वाले स्कन्ध को ग्रहण करता है।
इस प्रकार कर्मों में अलग-अलग स्वभाव को प्रकृतिबंध, कालमर्यादा को स्थिति बंध, रस को अनुभाग बंध और कर्म पुद्गलों के समूह को प्रदेश बन्ध कहते
बंध के इन चार प्रकारों में से प्रकृति बंध और प्रदेश बन्ध योग के आश्रित हैं। योग के तरतम भाव पर प्रकृति एवं प्रदेश बंध का तरतमभाव अवलम्बित है। स्थिति बंध और अनुभाग बंध का आधार कषाय है, क्योंकि कषायों की तीव्रता या मन्दता पर ही स्थिति और अनुभाग बन्ध की न्यूनाधिकता अवलम्बित है। कषाय यदि मंद है, तो कर्म की स्थिति और अनुभाग भी मंद रहेंगे और यदि कषाय तीव्र होंगे तो कर्म की स्थिति दीर्घ और अनुभाग भी तीव्र होगा।
इस प्रकार रागादि रूप विभाव परिणमन से जीव बन्ध करता है तथा वीतरागता को धारण करके जो सम्यग्दृष्टि बन जाता है, वही मोक्ष प्राप्त करता है।
9. मोक्ष : बंध का सर्वथा अभाव ही मोक्ष है। जैन साधना की सम्पूर्ण सफलता सिद्धि एवं मुक्ति की प्राप्ति में सन्निहित है। मोक्ष प्राप्त करना ही साधकों का सर्वोत्कृष्ट साध्य है। यही सर्वोत्तम पुरुषार्थ है। समस्त जप-तप-यम-नियम-ध्यान आदि मोक्ष के लिए ही किए जाते हैं। समस्त साधकों एवं मुमुक्षुओं का एकमात्र लक्ष्यबिन्दु मोक्ष ही है। मोक्ष आत्मा का पूर्ण विकास है और आत्यान्तिक रूप से दुःख मुक्ति है।
संसारवर्ती आत्मा अनादिकाल से कर्म रूपी मैल से उसी प्रकार मलिन है, जिस प्रकार मिट्टी में रहा हुआ सोना। जिस प्रकार मृतिका से मिश्रित स्वर्ण को क्षार, पुट
और अग्नि के सम्पर्क से विशिष्ट प्रयोग से मिट्टी से अलग किया जा सकता है, उसे शुद्ध स्वर्ण का रूप दिया जा सकता है। इसी प्रकार कर्ममिश्रित आत्मा को संवर, निर्जरा और तप के विशिष्ट प्रयोग द्वारा निर्मल बनाया जा सकता है। इस प्रकार निर्मल बनी हुई आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप-अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य को प्राप्त करके लोकाग्र पर स्थिति सिद्धशिला पर विराजित होकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाती है।
समस्त कर्मों का क्षय ही मोक्ष है। मिथ्यात्व, कषाय आदि बंध के हेतुओं का सर्वथा अभाव तथा निर्जरा से पूर्वबद्ध समस्त कर्मों का आत्यांतिक क्षय ही मोक्ष है। अर्थात् कर्म पुद्गलों का आत्मा से वियोग ही मोक्ष है। जब तक नवीन कर्म आते रहेंगे, तब तक कर्म का आत्यंतिक क्षय संभव नहीं हो सकता। नवीन कर्मों का आस्रव (आगमन) संवर द्वारा रुकता है और पूर्वबद्ध कर्म निर्जरा द्वारा क्षीण होते हैं। इस प्रकार संवर तथा निर्जरा पूर्वक संपूर्ण कर्मों का क्षय होने पर ही मोक्ष होता है।