________________
404 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति सहज ही नहीं होती। बन्धन में पड़ी हुई आत्मा को विकास की उन ऊंचाइयों को छूने के लिए विकास की एक लम्बी प्रक्रिया में से गुजरना पड़ता है। इस कर्म क्षय की प्रक्रिया के गुणस्थान कहा गया है। ये गुणस्थान 14 बताए गए हैं, जिनसे होकर आत्मा रत्नत्रय रूप से मोक्ष को प्राप्त करता है।
गुणस्थान (कर्म क्षय की प्रक्रिया ): मोक्ष प्राप्त करने के लिए आत्मा को चौदह सोपान चढ़ने पड़ते हैं, जिन्हें गुणस्थान कहते हैं। ये गुणस्थान आत्म विकास का एक सुनिश्चित क्रम है।
अविकसित या सर्वथा अध:पतित आत्मा की अवस्था प्रथम भूमिका (गुणस्थान) है। इसमें आत्मा के प्रबलतम शत्रु मोह की शक्ति बड़ी सशक्त होती है और आत्मा की आध्यात्मिक स्थिति बिल्कुल क्षीण होती है। इस गुणस्थान में आत्मा पररूप को स्वरूप समझकर उसी को पाने के लिए लालायित रहता है। मिथ्यादृष्टि के कारण राग-द्वेष में जकड़ा रहता है। इस प्रथम गुणस्थान में आत्मा भौतिक उत्कर्ष कितना ही कर ले, लेकिन उसकी प्रवृत्ति तात्विक लक्ष्य से सर्वथा शून्य होती है। यह भूमिका बहिरात्म भाव या मिथ्या दर्शन की है।
इस भूमिका के सभी जीव भी एक सी स्थिति के नहीं होते। उनमें भी मोह दशा की तरतमता पाई जाती है। कोई मोह की गाढ़तम अवस्था में होते हैं, कोई गाढ़तर स्थिति में और कुछ इससे भी कम मोहासक्त होते हैं। गिरि-नदी-पाषाण न्याय से जानते अजानते जब भी जीव पर मोह का प्रभाव कम होने लगता है, तब वह विकास की ओर अग्रसर हो जाता है और तीव्रतम राग-द्वेष को कुछ मन्द करता हआ मोह की प्रथम शक्ति दर्शनमोह को समाप्त करने योग्य आत्मबल प्राप्त कर लेता है। इस द्वितीय गुणस्थान को ग्रन्थिभेद कहा जाता है।
ग्रन्थिभेद का कार्य बडा विषम है। राग-द्वेष की तीव्रतम विष-ग्रन्थि एक बार शिथिल हो जाए, तो दर्शन मोह को शिथिल होने में देर नहीं लगती। दर्शन मोह की शिथिलता के पश्चात चारित्र मोह की शिथिलता का मार्ग स्वयमेव खुल जाता है। लेकिन इसके लिए एक आध्यात्मिक युद्ध होता है। इसमें एक तरफ राग-द्वेष अपने पूर्ण बल का प्रयोग करते हैं और दूसरी ओर विकासोन्मुख आत्मा अपने वीर्य-बल का प्रयोग करता है। कई बार यह युद्ध अनिर्णीत ही रहता है, कभी मोह प्रबल होकर विजयी होता है और कभी आत्मा अपने प्रबल पौरूष बल से राग-द्वेष की ग्रन्थि को शिथिल कर विजय लाभ प्राप्त करता है।
आत्मा का यह राग-द्वेष से रहित होने का प्रयत्न करण कहलाता है। करण तीन प्रकार के हैं- 1. यथा प्रवृत्ति करण, 2. अपूर्व करण और 3. अनिवृत्ति करण।
अनन्तकाल से दुःख सहते-सहते आत्मा कोमल एवं स्नेहिल बन जाता है। उस परिणाम शुद्धि के कारण जीव आयुकर्म के अतिरिक्त शेष सात कर्मों की स्थिति