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396* जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
“ ध्यानाग्निः सर्व कर्माणि भस्मसात्कुरुते क्षणात् "
ऐसे अनेक महात्मा हुए हैं, जिन्होंने अपनी साधना का इतना बल प्राप्त कर लिया था, कि साधु दीक्षा लेते ही, उन्हें केवल्य की प्राप्ति हो गई थी । पुरानी वासनाओं और राग-द्वेष तथा मोह के कुसंस्कारों को नष्ट करने का एकमात्र मुख्य साधन है - 'ध्यान' अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध करके उसे एकाग्र करना । ध्यान के माध्यम से चैतन्य स्वभावी, तीनों कालों में स्थिर रहने वाले आत्म तत्त्व में राग-द्वेष रूप कषायों का अभाव होने पर शुद्ध स्वरूप की वृद्धि ही निर्जरा तत्त्व है । निर्जरा तप से होती है। लेकिन सम्यग्ज्ञान के अभाव में कषायों के रहते जो तप किया जाता है, वह बालतप कहा जाता है तथा निर्जरा में सहायक नहीं होता है । किन्तु सम्यग्ज्ञान के होने पर कषाय के अभाव में होने वाली परिणामों की शुद्धता ही वास्तविक तप है। इसी अकषाय रूप तप से निर्जरा होती हैं, जो दो प्रकार की कही गई है- द्रव्य निर्जरा तथा भाव निर्जरा ।
जिसे स्व- पर विवेक रूप से सम्यग्ज्ञान हो जाता है, वह चेतन तथा अचेतन द्रव्यों का इन्द्रियों द्वारा जो उपभोग करता है, वह सब निर्जरा का ही निमित्त होता है। रागादि कषायों से युक्त मिथ्यादृष्टि जीवों के लिए यही उपभोग बंध का कारण होता है । यद्यपि पूर्व कर्मों के भोग द्वारा उनकी तो निर्जरा होती है, किन्तु भोग में आसक्ति होने के कारण मिथ्यादृष्टि के नवीन कर्मों का बन्ध हो जाता है। लेकिन रागादि के अभाव के कारण ज्ञानी के लिए वह द्रव्य निर्जरा होती है। अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव के कर्म विपाक अवस्था आने पर अपना फल देकर समाप्त हो जाते हैं व आसक्ति भाव न होने से नवीन बन्धन का कारण नहीं बनते हैं ।
पूर्वबद्ध कर्मों के उदय में आने पर द्रव्य के उपभोग से जीव में सुख या दुःख के भाव नियम से उत्पन्न होते हैं। मिथ्यादृष्टि जीवों के पूर्व कर्मों की निर्जरा के साथसाथ नवीन बन्ध भी होता रहता है । किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव के रागादि कषायों के अभाव में आगामी बन्ध हुए बिना ही भाव निर्जरा होती है। इस प्रकार ज्ञान की महिमा है, जिसके कारण जीव कर्मों का भोग करता हुआ भी कर्मों को नहीं बाँधता है। जैसे वैद्य विष का सेवन करता हुआ भी नहीं मरता है, उसी प्रकार ज्ञानी आत्मा पुद्गल कर्म का भोक्ता बनकर भी नवीन कर्मों को नहीं बाँधता है ।
इस प्रकार ज्ञानी की समस्त व्रत तपादि की क्रियाएँ इच्छा रहित होती हैं। अतः वह उनके फल को प्राप्त नहीं करता है तथा कर्म निर्जरा करके शुद्धात्म स्वरूप को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है, कि राग-द्वेष मोह आदि कषायों से मुक्त होकर ही जीव कर्मों की निर्जरा कर सकता है। सम्यग्दर्शन होते ही निर्जरा प्रारम्भ हो जाती है। स्वपर विवेक रूप सम्यक् दर्शन होने पर रागादि स्वतः ही लुप्त हो जाते हैं । फलतः विषयों को भोगते हुए भी जीव कर्म बन्ध नहीं करता है, तथा भोग के माध्यम से