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394 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
हित-मित-प्रिय वचन बोलना। 3. एषणा समिति - विधि पूर्वक निर्दोष आहार लेना। 4. आदान-निक्षेपण समिति - देख-शोध करके किसी वस्तु को रखना, उठाना। 5. उत्सर्ग समिति- देख-शोधकर निर्जन्तु स्थान पर मलमूत्रादि का विसर्जन करना।
धर्म : आत्म स्वरूप की ओर ले जाने वाले और समाज को संधारण करने वाले विचार और प्रवृतियाँ धर्म हैं। धर्म दश हैं।
1. क्षान्ति : क्षमा अर्थात् क्रोध का त्याग करके सहनशील बनना। 2. मुक्ति : शुचिता, पवित्रता तथा निर्लोभता ही मुक्ति है। 3. आर्जव : सरलता अर्थात् मन, वचन व काय की कुटिलता का त्याग। 4. मार्दव : चित्त में मृदुता तथा बाह्य व्यवहार में नम्रता ही मार्दव है। 5. लाघव (आकिंचन्य) : बाह्य तथा आभ्यान्तर पदार्थों के प्रति ममत्व एवं
परिग्रह का त्याग। 6. सम : प्रामाणिकता, विश्वास, परिपालन, तथ्य और स्पष्ट भाषण। 7. संयम : इन्द्रिय-विजय। पाँचों इन्द्रियों की विषय-कपाय में प्रवृत्ति को
नियंत्रित रखना। 8. तप : इच्छा-निरोध। मन की तृष्णाओं को रोककर प्रायश्चित, विनय तथा
वैयावृत्य (सेवा) में चित्तवृत्ति को संलग्न करना। उपवास, एकासन,
कायक्लेश, मौन, एकान्तवास आदि बाह्य तप है। 9. त्याग : वस्तुओं के प्रति आसक्ति भाव का त्याग करके दान आदि देना। 10. ब्रह्मचर्य : बाह्य काम भोगों से अपना चित्त हटाकर ब्रह्म अर्थात् आत्मा में
रमण करना।
अनुप्रेक्षा : सद्विचार, उत्तम भावनाएँ और आत्मचिन्तन अनुप्रेक्षा है। जगत् की अनित्यता, अशरणता, संसार का स्वरूप, आत्मा का अकेला ही फल भोगना, देह की भिन्नता और उसकी अपवित्रता रागादि भावों की हेयता, सदाचार की उपादेयता, लोक स्वरूप का चिन्तन और बोधि की दुर्लभता आदि का बार-बार विचार करके चित्त को सुसंस्कारी बनाना, जिससे वह द्वन्द्व दशा में समताभाव रख सके। ये भावनाएँ चित्त को आस्रव की ओर से हटाकर संवर की तरफ झुकाती हैं।
परिषह जय : साधक का स्वीकृत धर्म मार्ग से चलित न होने, स्थिर रहने और कर्मबन्धन के क्षय के लिए जो स्थितियाँ समभाव पूर्वक सहन करने योग्य है, उसे परिषह कहते हैं। जैसे भूख, प्यास, सर्दी-गर्मी, मच्छर, चलने फिरने में कंकड़-कांटे आदि की बाधाएँ, वध, आक्रोश आदि बाधाओं को शान्ति से सहना चाहिए। चिर तपस्या करने पर भी सफलता प्राप्त न होने पर तप के प्रति अनादर भाव नहीं होना चाहिए तथा सफलता मिलने पर गर्वित नहीं होना चाहिए। किसी के सत्कार-पुरस्कार में हर्ष और अपमान में खेद नहीं करना, भिक्षा भोजन करते हुए भी आत्मा में दीनता