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तत्त्व मीमांसा * 391
या आत्महत्या करने से प्राणातिपातिकी क्रिया लगती है। 6. आरंभिकी : षट्काय के जीवों का उपमर्दन-छेदन-भेदन आदि करने से
लगने वाली क्रिया आरंभिकी क्रिया है। 7. परिग्रहिकी : सचित्त या अचित्त परिग्रह रखने से लगने वाली क्रिया
परिग्रहीकी है। धन, धान्य, द्विपद, चौपद आदि परिग्रह का त्याग या
मर्यादा न करने से यह क्रिया लगती है। 8. माया-प्रव्यया : स्वयं के अथवा दूसरों के प्रति कपट या धूर्तता करने से
लगने वाली क्रिया को माया प्रव्यया कहते हैं। 9. अप्रत्याख्यान-प्रव्यया : जीव-अजीव आदि भोगोपभोग की समस्त
वस्तुओं के लिए जब तक व्रत नियम, त्याग, प्रत्याख्यान या विरति न करने
से लगने वाली क्रिया अप्रत्याख्यान-प्रव्यया क्रिया है। 10. मिथ्यादर्शन-प्रव्यया : तत्त्व अश्रद्धान, तत्त्व की विपरीत प्ररुपणा अथवा
तत्त्व के स्वरूप से उसे न्यूनाधिक समझना आदि मिथ्यादर्शन के कारण
लगने वाली क्रिया मिथ्यादर्शन प्रव्यया है। 11. दृष्टिका क्रिया : जीव-अजीव रूप किसी भी रमणीय वस्तु को राग
दृष्टि से देखने से लगने वाली क्रिया अथवा किसी दर्शनीय वस्तु को देखने
जाने के निमित्त से लगने वाली क्रिया दृष्टिका क्रिया है। 12. स्पृष्टिका : सचित्त व अचित्त किसी भी वस्तु को राग भाव से स्पर्श करने
से लगने वाली क्रिया को स्पृष्टिका क्रिया कहते हैं। राग-द्वेष की भावना
को लेकर प्रश्न पूछने से लगने वाली क्रिया स्पृष्टिका क्रिया हैं। 13. प्रातीत्यिकी : जीव या अजीव रूप किसी बाह्य वस्तु के निमित्त से जो
राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है, उससे लगने वाली क्रिया प्रातीत्यिकी क्रिया
14. सामान्तोपनिपातिकी क्रिया : जनसमूह की प्रशंसा प्राप्त करने के लिए
जीव तथा अजीव किसी भी संग्रहणीय और दर्शनीय सावद्य वस्तुओं का संग्रह करना और उन वस्तुओं की दर्शकों के द्वारा प्रशंसा किए जाने पर
प्रसन्न होना सामन्तोपनिपातिकी क्रिया है। 15. साहस्थिया (स्वहस्तिकी) क्रिया : अपने हाथ में किसी शिकारी जीव
को लेकर उसके द्वारा किसी जीव को मारने तथा तलवार, पत्थर आदि किसी भी निर्जीव वस्तु के द्वारा भी किसी जीव को मारने से जो क्रिया
लगती है, वह स्वहस्तिकी क्रिया है। 16. नैसृष्टिकी: किसी जीवाजीवादि वस्तु को निर्दयतापूर्वक और
अयतनापूर्वक फैंकने या पटकने से लगने वाली क्रिया नैसृष्टिकी क्रिया है। अथवा पापकारी प्रवृत्ति के लिए अनुमति देना भी नैसृष्टि की क्रिया है।