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तत्त्व मीमांसा * 375
जिसके कारण जीव-अजीव का भेद होता है। यह जीव तत्त्व ही आध्यात्मिक जगत के रंग-मंच का मुख्य पात्र है। यही विभाव में परिणत होकर जड़ कर्मों से बंधता है और यही अपने पुरुषार्थ द्वारा मुक्त होता है।
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा उपयोगमय, परिणामी, नित्य, अमूर्त, कर्ता, साक्षात्, भोक्ता, स्वदेह परिमाण, असंख्यात प्रदेशी, पौद्गलिक अदृष्टवान हैं।
__ 'नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा।
वीरिअं उवओगो य एयं जीवस्स लक्खणं ॥१ अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग जीव के लक्षण हैं।
अद्वैत वेदान्त व सांख्य दर्शन में भी आत्मा को चैतन्य स्वरूप कहा गया है। रामानुजाचार्य भी चेतना को आत्मा का आवश्यक गुण मानते हैं। इसके विपरीत न्यायवैशेषिक चेतना को आत्मा का आगन्तुक गुण मानते हैं, स्वरूप गुण नहीं। चार्वाक दर्शन तो चेतना को शरीर का ही गुण मानते हैं तथा आत्म तत्त्व का निषेध ही करते
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जीव की सिद्धि : चार्वाक दर्शन आत्मा को स्वीकार नहीं करता है। अतः आत्मा के अस्तीत्व को सिद्ध करने के लिए विविध प्रमाण दिए गए हैं। लेकिन इससे पूर्व चार्वाक के भूतवादी दर्शन का खण्डन किया गया है।
चैतन्य भूतों का गुण नहीं है : चार्वाक दर्शन मानता है, कि पृथ्वी जल, अग्नि और वायु रूप भूत चतुष्टय की विशिष्ट रासायनिक प्रक्रिया से शरीर में चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है। लेकिन यह मत नितान्त मिथ्या है, चैतन्य, चेतना शक्ति का ही परिणाम हो सकता है, किसी जड़ वस्तु का नहीं। जैसे बालु में स्निग्धता नहीं होती, तो उसके समुदाय से स्निग्धता गुण वाला तेल नहीं निकल सकता। वैसे ही भूतों में पृथक्-पृथक् चैतन्य न होने से उनके समुदाय से चैतन्य की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती।
___ यदि चैतन्य को भूतों का गुण माना जाए, तो किसी का मरण नहीं होना चाहिये, क्योंकि मृत शरीर में भी पंच भूतों का अस्तीत्व होता है। वे पंचभूत वहाँ कायाकार रूप में हैं, परन्तु वहाँ चैतन्य नहीं देखा जाता, जिससे यह सिद्ध होता है, कि चैतन्य भूतों का गुण नहीं है। फिर भी जीवों में चेतना देखी जाती है, अतः यह सिद्ध होता है, कि चैतन्य आत्मा का धर्म है। चैतन्य गुण के प्रत्यक्ष होने से आत्मा स्वयंसिद्ध है, क्योंकि गुण और गुणी कथंचित अभिन्न है।
आत्मा की प्रत्यक्ष से सिद्धि : आत्मा की सिद्धि में स्वानुभूति सबसे ठोस प्रमाण है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने अस्तित्व की अनुभूति होती है। सभी यह अनुभव करते हैं, कि 'मैं हूँ'। 'मैं सुखी हूँ' अथवा 'मैं दुःखी हूँ' ऐसा स्वसंवेदन प्रत्येक प्राणी को होता है। कोई भी जड़ पदार्थ ऐसी अनुभूति नहीं कर सकता। यह स्वसंवेदन चेतन