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386 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
नामकर्म भी त्याज्य ही होगा। लेकिन वस्तुतः जब तक मोक्ष सन्निकट नहीं है, तब तक पुण्य कर्म आदरने योग्य है। शास्त्रों में स्थान-स्थान पर पुण्य की महिमा प्रकट की गई है। तेरहवें गुणस्थान तक पुण्य प्रकृति रहती और बंधती है। सारांश यह है, कि पुण्य के विषय में एकान्त पक्ष ग्रहण करना उचित नहीं है। जो तत्त्व सर्वोच्च स्थिति पर पहुँचते समय छोड़ने योग्य होता है, उसे प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर ही छोड़ने योग्य मान लेना कदापि संगत नहीं है। मोक्ष प्राप्ति की स्थिति में पुण्य तत्त्व स्वयंमेव छूट जाता है, उसे छोड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती। अतः सर्वोच्च स्थिति के पूर्व तक पुण्य उपादेय, आदरणीय व ग्राह्य है, यद्यपि वह अन्तिम लक्ष्य नहीं है।
4. पाप तत्त्व : पुण्य का प्रतिपक्षी तत्त्व पाप है। पाप शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए स्थानांग सूत्र की टीका में कहा गया है, कि जो आत्मा को जाल में फंसावे अथवा आत्मा को गिरावे अथवा आत्मा के आनन्दरस को सुखावे, वह पाप है। संसार में जो कुछ भी अशुभ है, वह सब पाप और उसके फल में समाविष्ट हो जाता है।
जैन दर्शन में पाप तत्त्व का भी स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया गया है। वह केवल पुण्य का अभाव नहीं है। कर्म के शुभ-अशुभ रूप से दो भेद है। शुभ कर्म पुण्य रूप हैं और अशुभ कर्म पाप रूप हैं । शुभ फल सुखादि का कारण पुण्य है और अशुभ फल दुखादि का कारण पाप है। संसार में दुःख आदि अशुभ कार्य दृष्टिगोचर होते हैं, उनका कोई कारण होना चाहिये, क्योंकि वे कार्य हैं। जो कार्य होता है, उसका कोई कारण अवश्य होता है, जैसे अंकुर का कारण बीज। जो दुःखादि अशुभ फल का कारण है, वही पाप कर्म है। कहा जा सकता है, कि अनिष्ट संयोग और इष्ट वियोग रूप दृष्ट कारणों को छोड़कर पाप रूपी अदृष्ट कारण की कल्पना करना निरर्थक है। किंतु यह कथन युक्ति संगत नहीं है, क्योंकि इष्ट कारण रूप बाह्य साधनों की तुल्यता होने पर भी फल में वैचित्र्य देखा जाता है। दो व्यक्तियों को समान साधन सामग्री प्राप्त होने पर भी फल में अन्तर देखा जाता है। एक व्यक्ति साधनों की समानता के बावजूद सफलता प्राप्त करता है और दूसरा असफल हो जाता है। अतः तुल्य सामग्री के सद्भाव में होने वाला फलभेद किसी अदृष्ट कारण की सत्ता को सिद्ध करता है। अशुभ दुःखादि फल का जो बीज (कारण) है, वही पाप तत्त्व है।
पुण्य-पाप को लेकर चिन्तकों में कई प्रकार के मत पाये जाते हैं। कोई कहता है, कि पुण्य ही एकमात्र तत्त्व है, पाप नहीं। कोई कहता है, कि पाप ही तत्त्व है, पुण्य नहीं। कोई कहते हैं, कि पुण्य-पाप अलग-अलग नहीं हैं, परन्तु पुण्य-पाप नामक एक ही वस्तु है। कोई कहते हैं, कि ये अलग-अलग सुख-दुःख के कारण हैं, अतएव दोनों स्वतन्त्र तत्त्व है। कोई कहते हैं, कि कार्य का मूल से ही कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि यह सारा जगत व्यवहार स्वभाव सिद्ध है। इन तरह-तरह के विकल्पों से जीवों में संशय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अतः आगमों में यथार्थ विकल्प का विवेचन