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378 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
सामूहिक राय दी है - "यह जगत् बिना रुह की मशीन नहीं है। इत्तफाक से यों ही नहीं बन गया है। जड़ के पैंदे के पीछे एक दिमाग, एक चेतना शक्ति काम कर रही है, चाहे उसका कुछ भी नाम क्यों न रखें।"
सांइस एण्ड रिलीजन - "जड़वाद के जितने भी मत गत बीस वर्षों में रखे गए हैं, वे सब आत्मवाद पर आधारित हैं, वही विज्ञान का अन्तिम विश्वास है।''
कुछ समय पूर्व वैज्ञानिक क्षेत्र में किसी सीमा तक यह फैशन था, कि चेतना के सम्बन्ध में अपने को अज्ञात कहे, परन्तु आज भी व्यक्ति अपनी अज्ञानता पर गर्व करे, उसे बुरा समझा जाता है और उस पर अंगुली उठाई जाती है, अब पहले वाला दृष्टिकोण नहीं है। इसका श्रेय विज्ञान को है।
उपर्युक्त प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है, कि विज्ञान धीरे-धीरे आत्मवादी बनता जा रहा है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है, कि आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में दर्शन व विज्ञान एक होते जा रहे हैं।
जीव के भेद : जीव दो प्रकार के कहे गए हैं - संसारी एवं सिद्ध। सिद्ध देह रहित होते हैं तथा अपने शुद्ध आत्मस्वरूप अर्थात् स्वचतुष्टय में परिणमन करते हैं। इसके विपरीत संसारी जीव देहयुक्त होते हैं। अतः विशुद्ध होते हैं, क्योंकि वे व्यवहार से अजीव तत्वों व भावों से सम्बन्धित होते हैं। इन वर्णादिक भावों के साथ जीव का सम्बन्ध यद्यपि दूध और पानी का एक क्षेत्रावगाह रूप संयोग सम्बन्ध है। स्वलक्षण भूत उपयोग गुण के द्वारा व्याप्त होने से आत्मा सभी द्रव्यों से युक्त प्रतीत होता है, किन्तु वे उस जीव के नहीं है। जैसा अग्नि का उष्णता के साथ तादात्म्य संबंध है, वैसा वर्णादि के साथ जीव का संबंध नहीं है।
__ जीव के स्पर्श, रस, गंध, वर्ण नहीं है, शरीर संस्थान, सहनन नहीं है, राग-द्वेप व मोह नहीं है, प्रत्यय कर्म, नौकर्म नहीं है, वर्ग, वर्गणा, स्पर्शक नहीं हैं, अध्यात्म स्थान, अनुभाग स्थान, योग स्थान, बंध स्थान, उदय स्थान, मार्गणा स्थान, स्थिति बंध स्थान, संक्लेश स्थान, विशुद्ध स्थान, संयम लब्धि स्थान नहीं है और न ही जीव के जीव स्थान व गुणस्थान ही हैं, क्योंकि ये पुद्गल के परिणाम हैं। यह नियम है, कि जो वस्तु जिसका परिणाम होती है, वह उसी रूप होती है। अतः वे वर्णादिक जो पुद्गल के परिणाम हैं, पुद्गल रूप ही है, उन्हें जीव मानना न्यायोचित नहीं है।
वर्णादिक से लेकर गुणस्थान पर्यंत के ये भाव व्यवहारनय से जीव के हैं, परन्तु निश्चयनय से कोई भी जीव के नहीं है। ये सभी भाव आत्मा से भिन्न हैं, इसलिए परमार्थ से अन्तःकरण में अवलोकन करने वाले जीव को ये सब भाव नहीं दिखते, केवल एक आत्म तत्त्व ही दिखाई देता है। वर्णादिक भाव संसार स्थित जीवों के होते हैं, संसार से मुक्त हुए जीवों के वर्णादिक कोई भी नहीं है। अर्थात् संसारस्थ जीव पुद्गल से संयुक्त होने के कारण ही पुद्गल के वर्णादिक भाव जीव पर आरोपित हो