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ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) * 327
इन सभी नयों की परस्पर विरुद्ध वक्तव्यता को सुनकर समस्त नयों से विशुद्ध सम्यक्त्व, चारित्र और ज्ञान गुण में स्थित होने वाला साधु (मोक्ष साधक) हो सकता
किसी पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को जानना ज्ञाननय है। ज्ञाननय से प्राप्त बोध के अनुसार जीवन में उसे उतारना क्रियानय है। ज्ञान प्रधाननय को भावनय तथा शब्द प्रधाननय को द्रव्यनय कहते हैं।
क्रिया से रहित ज्ञान निष्फल है तथा ज्ञान से रहित क्रिया भी कार्य साधक नहीं है। जैसे-अन्न आदि का ज्ञान होने पर भी भक्षण की क्रिया के अभाव में उदर पोषण नहीं होता। जैसे-अंधा और लंगड़ा मिलकर अपने गन्तव्य पर पहुँच सकते हैं, लेकिन पृथक्-पृथक् दोनों ही अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकते। अतएव ज्ञान व क्रिया के समुचित समन्वय से ही सिद्धि प्राप्ति हो सकती है।
निश्चयनय का प्रतिपादन भगवान महावीर ने ही किया था। उससे पूर्व प्रचलित पार्श्व परम्परा में व्यवहारनय का ही प्रचलन था।
___ अध्यात्म जगत में भी निश्चयनय और व्यवहारनय को लेकर बहुत मतभेद दृष्टिगोचर होते हैं, परन्तु यह नयों के स्वरूप को यथार्थ रूप में न अपनाने का परिणाम है। निश्चयनय की दृष्टि साध्य को सुस्पष्ट करने के लिए है। वह साधक को उसका परम लक्ष्य बताती है। जबकि उस साध्य को प्राप्त करने के लिए व्यवहारनय का अवलम्बन लेना आवश्यक है । व्यवहार से ही वे साधन निसृत होते हैं, जो साधक को अपने परम लक्ष्य तक ले जा सकते हैं।
सत्य अनन्त पहलुओं वाला है, उसे किसी एक पहलू से नहीं समझा जा सकता है। एकांगी दृष्टि वस्तु को सही रूप में देखने में असमर्थ है। इसलिए जैन दर्शन ने नयों का विवेचन किया है।
"उभयनय विरोध ध्वंसिनि स्यात्पदांके जिनवचारी रमंते ये स्वयं वांतमोहाः । सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षत एव॥"75 अर्थात् निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों के विषय भेद से परस्पर विरोध है, उस विरोध का नाश करने वाला 'स्यात' पद से चिह्नित जो जिन भगवान का वचन है, उसमें ये पुरुष रमते हैं, वे अपने आप ही मिथ्यात्व कर्म के उदय का वमन करके इस अतिशय रूप परम ज्योति प्रकाशमान शुद्ध आत्मा को तत्काल ही देखते हैं। वह समयसार रूप शुद्ध आत्मा नवीन उत्पन्न नहीं हुआ, अपितु पहले कर्मों से आच्छादित था, सो वह प्रगट व्यक्तिरूप हो गया है। वह सर्वथा एकान्तरूप कुनय के पक्ष से खण्डित नहीं होता, निर्बाध है।