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336 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
उससे परे जाकर नहीं वरन् वहीं से उसका दार्शनिक चिंतन प्रारम्भ होता है, जिसकी अन्तिम परिणति भौतिक जगत से परे हो सकती है। मानव मस्तिष्क ने विश्व के स्वरूप को विविध आयामों से जानने का प्रयास किया है। इसका साक्षी ऋग्वेद से लेकर उपनिषद् और बाद का समस्त दार्शनिक सूत्र और टीका साहित्य है। इनके अतिरिक्त जैन और बौद्ध दर्शन भी इसी बात का प्रमाण है।
ऋग्वेद के दीर्घतमा ऋषि विश्व के मूल कारण और स्वरूप की खोज में लीन होकर प्रश्न करते हैं, कि इस विश्व की उत्पत्ति कैसे हुई है, इसे कौन जानता है? कोई ऐसा जो जानकार से पूछकर पता लगावे? वह फिर कहते हैं, कि मैं तो नहीं जानता, किंतु खोज में इधर-उधर विचरता हूँ, तो वचन के द्वारा सत्य के दर्शन होते हैं। खोज करते दीर्घतमा ने अन्त में कह दिया कि, “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।" सत् तो एक ही है, किन्तु विद्वान् उसका वर्णन कई प्रकार से करते हैं। अर्थात् एक ही तत्त्व के विषय में नाना प्रकार से विवेचन किया गया है।
दीर्घतमा के इस उद्गार में ही मनुष्य स्वभाव की उस विशेषता का हमें दर्शन होता है, जिसे हम समन्वयशीलता कहते हैं। इसी समन्वयशीलता का शास्त्रीय रूप जैन दर्शन सम्मत स्याद्वाद या अनेकान्तवाद है।
नासादीय सूक्त के एक ऋषि जगत के आदि कारण रूप उस परम गंभीर तत्त्व को जब न सत् कहना चाहते हैं और न असत् । तब यह नहीं समझना चाहिये कि, वह ऋषि अज्ञानी या संशयवादी थे, अपितु इतना ही समझना चाहिये, कि ऋषि के पास उस परम तत्त्व के प्रकाशन के लिए उपयुक्त शब्द न थे। शब्द की इतनी शक्ति नहीं है, कि वह परम तत्त्व को संपूर्ण रूप से प्राकाशित कर सके। इसलिए ऋषि ने कह दिया, कि उस समय न सत् था न असत् । शब्द-शक्ति की इस मर्यादा के स्वीकार में से ही स्याद्वाद का और अस्वीकार में से ही एकान्तवादों का जन्म होता है।
विश्व के कारण की जिज्ञासा में से अनेक विरोधी मतवाद उत्पन्न हुए। जगत का मूल कारण क्या है? वह सत् है और असत्? सत् है तो पुरुष है या पुरुषतर-जल, वायु, अग्नि, आकाश आदि में से कोई एक है या फिर सभी? ।
प्रत्येक दर्शन अपने-अपने दृष्टिकोण से इन तत्त्वमीमांसीय समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करता है। विभिन्न दार्शनिक अपनी बौद्धिक व आध्यात्मिक पहुँच के अनुरूप ही विभिन्न रूपों में परमसत्ता का विवेचन करते हैं। उसी परमसत्ता के आधार पर ही संपूर्ण दृष्टि का विवेचन करते हैं। कुछ दार्शनिक एक ही परमसत्ता में विश्वास करते हैं, यथा अद्वैतवेदान्ती एकमात्र ब्रह्म को ही मूल सत्ता मानते हैं। कुछ दर्शनों में अनेकात्मक सत्ता का प्रतिपादन किया गया है, तो कोई दो परमसत्ताओं यथा जड़ व चेतन में विश्वास करते हैं, जैसे सांख्य दर्शन । इसके अतिरिक्त स्वरूप की दृष्टि से कुछ दार्शनिक सत्ता को परिवर्तनशील मानते हैं, तो कुछ कूटस्थ नित्य ही मानते हैं।