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तत्त्व मीमांसा* 341
यह गुण द्रव्य की निजरुप में स्थिर-मौलिकता कायम रखता है। इसी गुण में अनन्त भाग वृद्धि आदि षड्गुणी हानि-वृद्धि होती रहती है, जिससे ये द्रव्य अपने धौव्यात्मक परिणामी स्वभाव को धारण करते हैं और कभी अपने द्रव्यत्व को नहीं छोडते। इनमें कभी भी विभाव या विलक्षण परिणमन नहीं होता और न कहने योग्य कोई ऐसा फर्क आता है, जिससे प्रथम क्षण के परिणमन से द्वितीय क्षण के परिणमन का भेद बताया जा सके।
जब हम एक सत्- पुद्गल परमाणु में प्रतिक्षण परिवर्तन को उसके स्कन्धादि कार्यों द्वारा जानते हैं, एक सत्-आत्मा में ज्ञानादि गुणों के परिवर्तन को स्वयं अनुभव करते हैं तथा दृश्य विश्व में सत् की उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यशीलता प्रमाणसिद्ध है, तब लोक के किसी भी सत् को उत्पादादि से रहित होने की कल्पना नहीं की जा सकती।
इस प्रकार लोक में अनन्त सत् स्वयं अपने स्वभाव के कारण परस्पर निमित्त नैमित्तिक बनकर प्रतिक्षण परिवर्तित होते हैं। उनमें परस्पर कार्य कारण भाव भी बनते हैं। बाह्य और आभ्यान्तर सामग्री के अनुसार समस्त कार्य उत्पन्न होते और नष्ट होते हैं। प्रत्येक द्रव्य अपने में परिपूर्ण और स्वतंत्र है। वह अपने गुण और पर्याय का स्वामी है और अपनी पर्यायों का आधार। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में कोई नया परिणमन नहीं ला सकता। जैसा कि समयसार में कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है", कि ___ 'अण्णदविएण अण्णदव्वस्सणो कीरदे गुणुप्पादो।
तम्हा दु सव्वदव्वा उप्पजन्ते सहावेण॥' अर्थात- एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में कोई भी गुणोत्पाद नहीं कर सकता। सभी द्रव्य अपने-अपने स्वभाव से उत्पन्न होते हैं।
यह विश्व जो षड्द्रव्यों से निर्मित है, वह इन द्रव्यों के गुणों की आस्थाओं के निरन्तर परिवर्तन से ही परिवर्तनशील दिखाई देता है। इन द्रव्यों में से धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल ये चार द्रव्य सदैव शुद्ध अवस्था में ही पाये जाते हैं, इनके परिणमन सदैव एक से होते हैं, उनमें बाहरी प्रभाव नहीं आता, क्योंकि इनमें वैभाविक शक्ति नहीं है। शुद्ध जीवों में भी वैभाविक शक्ति का सदा स्वाभाविक परिणमन ही होता है। किन्तु जीव और पुद्गल की मिश्र या अशुद्ध अवस्था के कारण ही संसार, दुःख, बन्धन एवं मोक्ष होते हैं तथा इसलिए इनकी व्याख्या की आवश्यकता उत्पन्न हुई। विभिन्न दर्शनों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से जीव और पुद्गल के संबंधों एवं सम्बन्धविच्छेद के सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं।
जैन दर्शन के अनुसार संसारी जीव तथा पुद्गल द्रव्य में वैभाविकी शक्ति होती है। अतः ये स्वभाव तथा विभाव दोनों प्रकार से परिणमन करते हैं। विभाव परिणमन का तात्पर्य यह नहीं है, कि एक द्रव्य के परिणमन दूसरे सजातीय या विजातीय द्रव्य रुप हो जाए और अपनी पर्याय परम्परा का उल्लंघन कर जाए, वरन् सिर्फ इतना ही,