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356 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
2. वैक्रिय शरीर : जो शरीर छोटा-बड़ा, मोटा-पतला, एक अथवा अ रूप में विविध प्रकार की विक्रिया कर सके, वह वैक्रिय शरीर है।
3. आहरक शरीर : जो शरीर केवल किसी विशेष ऋद्धिधारी ( चतुर्दशपूर्वी) मुनियों द्वारा रचा जा सके, वह आहारक शरीर कहलाता है ।
4. तैजस शरीर : जो शरीर तेजोमय होने के कारण ग्रहण किए गए आहार आदि के परिपाक का हेतु और दीप्ति का निमित्त हो, वह तेजस शरीर है। 5. कार्मण शरीर : क्षण-प्रतिक्षण ग्रहण किया जाने वाला कर्म का समूह ही
कार्मण शरीर कहलाता है ।
तैजस और कार्मण शरीर प्रत्येक संसारी जीव के होते हैं । औदारिक शरीर केवल देव तथा नारकियों के होता है । आहारक शरीर का निर्माण विशेष ऋद्धिधारी मुनि ही कर सकते हैं। जब कभी चतुर्दशपूर्व पाठी मुनि को किसी सूक्ष्म विषय में संदेह हो जाता है और जब सर्वज्ञ का सन्निधान नहीं होता, तब वे अपना संदेह निवारण करने के लिए औदारिक शरीर से क्षेत्रांतर में जाना असंभव समझकर अपनी विशिष्ट ऋद्धि का प्रयोग करते हुए जो हस्त प्रमाण छोटे शरीर का निर्माण करते हैं, वह आहारक शरीर कहलाता है।" इस प्रकार शरीर की अपेक्षा से जीव पाँच प्रकार के होते हैं।
8. चौदह भूतग्राम भेद: जीवों के भेदों का इससे भी सूक्ष्म विवेचन जैन सूत्रों में है। समवायांग” में चौदह भूतग्राम ( जीवों के समूह ) कहे गए हैं ये भेद जीवों के पर्याप्तक तथा अपर्याप्तक, सूक्ष्म तथा बादर (स्थूल) एवं संज्ञी तथा असंज्ञी रूप को ध्यान में रखकर किए गए हैं। पर्याप्तक जीव उन्हें कहते हैं, जो जन्म से पूर्व शरीरादि छह पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेते हैं । जो इन पर्याप्तियों को पूर्ण किए बिना मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, वे अपर्याप्तक कहलाते हैं । एकेन्द्रिय जीवों में सूक्ष्म तथा बादर भेद होते हैं। शेष जीवों के केवल स्थूल होने के कारण उनमें सूक्ष्म भेद नहीं पाया जाता। पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं- असंज्ञी तथा संज्ञी । असंज्ञी जीवों के मन नहीं होता और संज्ञी जीवों के मन होता है। मन का सद्भाव केवल पंचेन्द्रिय प्राणियों में ही है। अतः संज्ञी - असंज्ञी का भेद भी केवल उन्हीं में है । इस प्रकार से ये कुल चौदह भूत ग्राम निम्नलिखित हैं
1. सूक्ष्म अपर्याप्तक एकेन्द्रिय
2. सूक्ष्म पर्याप्तक एकेन्द्रिय 3. बादर अपर्याप्तक एकेन्द्रिय 4. बादर पर्याप्तक एकेन्द्रिय
5. अपर्याप्तक द्वीन्द्रिय
6.
पर्याप्त द्वीन्द्रिय