________________
362 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन ।
प्रयोगज शब्द छः प्रकार के होते हैं - 1. भाषा : मनुष्यादि की व्यक्त और पशु-पक्षियों की अव्यक्त ऐसी अनेक
विध भाषाएँ हैं। 2. तत : चमड़े से लिपटे हुए वाद्यों का शब्द जैसे-ढोल, मृदंग आदि। 3. वितत : तार वाले वीणा, सारंगी आदि वाद्यों का शब्द। 4. घन : झालर घंटे आदि का शब्द 5. शुषिर : फूंककर बजाये जाने वाले शंखादि का शब्द। 6. संघर्ष : घर्षण से उत्पन्न शब्द जैसे-लकडी आदि के घर्ष का शब्द।
2. छाया : प्रकाश पर आवरण आ जाने से छाया होती है। इसके दो प्रकार हैं - 1. दर्पण आदि स्वच्छ पदार्थों में साफ-साफ दिखाई देने वाला बिम्ब और 2. अस्वच्छ वस्तुओं पर पड़ने वाली परछाई प्रतिबिम्ब रूप छाया है। छाया पदगलों का कार्य है - प्रकाश का अभाव मात्र नहीं है, जैसा कि नैयायिकादि दर्शन मानते हैं।
___ 3. तम : अन्धकार भी पुद्गलों का कार्य है। यह प्रकाश का अभाव मात्र नहीं है, अपितु कृष्णवर्णादि वाले पुद्गलों का पिण्ड है। नैयायिकादि दर्शन तम को प्रकाश का अभाव मात्र मानते हैं। उनका खण्डन इस विधान द्वारा होता है।
4. आतप-उद्योत : सूर्य आदि का उष्ण प्रकाश आतप है और चन्द्रमणि खद्योत आदि का शीतल प्रकाश उद्योत है। यद्यपि विज्ञान प्रकाश, गर्मी और शब्द को भी अभी केवल शक्ति ही मानता है। लेकिन ये केवल शक्तियाँ नहीं है, क्योंकि शक्तियाँ निराश्रय नहीं रह सकतीं। वे तो किसी न किसी आधार में ही रहेंगी और उनका आधार है - यह पुद्गल द्रव्य। प्रकाश और गर्मी के स्कन्ध एक प्रदेश से सुदूर देश तक जाते हुए अपने वेग (Force) के अनुसार वातावरण को प्रकाशमय और गर्म बनाते हुए जाते हैं। यों तो जब प्रत्येक परमाणु गतिशील है और उत्पाद-व्यय स्वभाव के कारण प्रतिक्षण नूतन पर्यायों को धारण कर रहा है, तब शब्द, प्रकाश और गर्मी को इन्हीं परमाणुओं की पर्याय मानने में ही वस्तु स्वरूप का संरक्षण रह पाता है।
__5. पृथ्वी आदि स्वतंत्र द्रव्य नहीं : नैयायिक वैशेषिक पृथ्वी के परमाणुओं में रुप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि चारों गुण, जल के परमाणुओं में रूप, रस और स्पर्श ये तीन गुण, अग्नि के परमाणुओं में रूप और स्पर्श ये दो गुण और वायु में केवल स्पर्श इस प्रकार गुण भेद मानकर चारों को स्वतंत्र द्रव्य मानते हैं। किन्तु जब प्रत्यक्ष से सीप में पड़ा हुआ जल, पार्थिव मोती बन जाता है। पार्थिव लकड़ी अग्नि बन जाती है। पार्थिव हिम पिघलकर जल बन जाता है और ऑक्सीजन व हाइड्रोजन दोनों वायु मिलकर जल बन जाती है। तब इनमें परस्पर गुण भेद कृत जाति भेद मानकर पृथक् द्रव्यत्व कैसे सिद्ध हो सकता है। जैन दर्शन ने पहले से ही समस्त परमाणुओं का परस्पर परिणमन देखकर एक ही पुद्गल द्रव्य स्वीकार किया है। यह तो हो सकता है,