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तत्त्व मीमांसा 347
'ज्ञान' कहलाता है। जब चैतन्य मात्र चैतन्याकार रहता है, तब 'दर्शन' कहलाता है । दूसरे शब्दों में जो बोध ग्राह्य वस्तु को सामान्य रुप से जानने वाला होता है, वह अनाकारोपयोग है। इसे दर्शन या निर्विकल्पक बोध कहते हैं । जो बोध ग्राह्य वस्तु को विशेष रुप से जानने वाला होता है, वह साकारोपयोग है। इसे ज्ञान या सविकल्पक बोध कहा जाता है। उपयोग के उक्त बारह भेदों में से केवलज्ञान और केवलदर्शन पूर्ण विकसित चेतन शक्ति के व्यापार हैं और शेष अपूर्ण विकसित चेतना के व्यापार हैं । केवलज्ञान और केवलदर्शन रुप से उपयोग भेद मानने का कारण केवल ग्राह्य विषय की द्विरुपता है । अर्थात् प्रत्येक विषय सामान्य और विशेष रुप से उभयस्वभावी है, इसलिए उसको जानने वाला चेतना व्यापार भी ज्ञान और दर्शन के रुप में दो प्रकार का होता है ।
चेतना शक्ति सब जीवों में समान होने पर भी उपयोग में अन्तर पाया जाता है। उपयोग की यह विविधता बाह्य - अभ्यान्तर कारणों पर आधारित है । विषय भेद, इन्द्रियादि साधनों का भेद, देशकाल भेद आदि बाह्य-सामग्री की विविधता है और आवरण की तीव्रता - मन्दता का तारतम्य आन्तरिक सामग्री की विविधता है। इस सामग्री की विविधता से ही उपयोग की विविधता आ जाती है। फिर भी उपयोग जीव का ऐसा असाधारण धर्म है, जो सभी जीवों में पाया जाता है।
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परिणामी नित्य- जैन दर्शन में आत्मा को परिणामी नित्य माना गया है। आत्मा न तो सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य । वह आत्म द्रव्य की अपेक्षा नित्य है, तो उसकी विविध पर्यायों की अपेक्षा अनित्य है । विविध पर्यायों में होने वाले परिवर्तनों के बावजूद भी आत्मतत्व ध्रौव्य है। इसके विपरीत सांख्य और वेदान्त दर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते है और उसमें कोई परिणमन नहीं मानते। वे ज्ञान, सुख, दुःखादि परिणामों को प्रकृति या अविद्या मानते हैं। वैशैषिक और नैयायिक आत्मा को एकान्त नित्य (अपरिणामी ) मानते हैं । मीमांसक भी लगभग ऐसा ही मानते हैं । इन सबसे विपरीत मान्यता है, बौद्ध दर्शन की । बौद्ध दर्शन आत्मा को एकान्त क्षणिक मानता है । वह आत्मादि पदार्थ को निरन्वय परिणामों का प्रवाह मात्र मानता है।
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जैन दर्शन इन सबका खण्डन करते हुए कहता है, कि आत्मा को सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य मानने पर उसमें अर्थ क्रिया घटित नहीं हो सकती । बन्ध-मोक्ष, आस्रव-संवर आदि कोई व्यवहार संगत नहीं हो सकते। अतः आत्मा को एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य न मानकर परिणामी नित्य ही मानना चाहिए। ऐसा मानने पर ही सारे आध्यात्मिक और लौकिक व्यवहार सार्थक माने जा सकते हैं।
अमूर्त : जीव को अमूर्त कहा गया है। भगवान महावीर कहते हैं, कि 'हे गौतम जीव इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता, क्योंकि वह अमूर्त है। अमूर्त होने से वह नित्य भी है। 22