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348 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
'जीव न दीर्घ है, न लघु है, न गोल है, न त्रिकोण है, न चौकोर है, न परिमण्डल है । वह न काला, न नीला, न पीला, न लाल और न ही सफेद है। वह न सुगन्ध युक्त है और न दुर्गन्ध युक्त । वह न तीखा है, न कसैला है, न खट्टा है, और न मीठा है। वह न कर्कश है, न मृदु, न भारी है, न हल्का, न ठण्डा, न गर्म, न चिकना, न रुखा है। वह कायवान् नहीं है, जन्म धर्मा नहीं है, निःसंग है, वह न स्त्री, न पुरुष, न नपुंसक है। वह परिज्ञा वाला है ( केवल दर्शन), संज्ञा (केवल ज्ञान), वाला है। वह उपमा से अतीत है, वह अरुपी (अमूर्त) सत्ता है, वह पदातीत ( शब्दातीत) है। वह न शब्द है, न रुप है, न गन्ध है, न रस है, और न स्पर्श है।' इसलिए वह इन्द्रियग्राह्य नहीं है।
इस प्रकार द्रव्यार्थिक नय से तो आत्मा पुद्गल के समस्त गुणों से रहित है । अतः अपने शुद्ध स्वरुप की दृष्टि से तो आत्मा अरुपी और अमूर्त हैं । किन्तु पर्यायार्थिक नय से संसार - परिणत जीव पौद्गलिक पर्यायों से संयुक्त कहा गया है। जीव का वर्तमान विकास और जीवन जिन आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन पर्याप्तियों के सहारे होता है, वे सब पौद्गलिक हैं । मुमुक्षु जीव को अपने शुद्ध स्वरुप को पाने के लिए जो साधना करनी होती है, उसके लिए भी उसे शरीरादि पौद्गलिक पर्यायों का अवलम्बन लेना पड़ता है। इस प्रकार दीर्घकालीन संसर्ग की अपेक्षा से जीव को रुपी भी माना गया है। शरीरादि की क्रियाएँ भी जीव के संसर्ग से ही हो सकती है, अन्यथा नहीं । निर्जीव शरीर आदि में स्वयं क्रिया नहीं हो सकती है। इस प्रकार चिरकाल से जीव तथा पुद्गल एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, तथा एक दूसरे से संयुक्त हैं। इस अपेक्षा से शरीरादि की पौद्गलिक क्रियाओं को आत्मा की पर्याय भी माना गया है, जैसा कि भगवती सूत्र में कहा गया है। "
भगवन! प्राणातिपात, मृषावाद, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य विवेक, औत्पत्तिकी यावत् परिणामिकी बुद्धि, अवग्रह यावत् धारणा, उत्थान-कर्म-बल-वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम, नैरायिकत्व यावत् वैमानिकत्व, ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय, कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ल लेश्या, चक्षुदर्शन आदि 4. मतिज्ञान यावत् विभंग ज्ञान, आहारादि संज्ञा, औदारिकादि शरीर, मनोयोगादि योग, साकारोपयोग अनाकारोपयोग तथा अन्य इस प्रकार की पर्यायें क्या आत्मा की पर्याय कही जा सकती है?
हाँ गौतम! वे सब पर्यायें आत्मा की है, आत्मा के अतिरिक्त ऐसा परिणमन नहीं होता है।
इस प्रकार आत्मा अपने शुद्ध मौलिक रुप में अमूर्तिक ( अरुपी ) है तथा पर्यायार्थिक नय से पौद्गलिक संसर्ग के कारण कथञ्चित रुपी भी है।
स्वदेह परिमाणत्व : जीव असंख्यात प्रदेश वाला है। चूँकि उसका अनादिकाल से सूक्ष्म कार्मण शरीर से सम्बन्ध है, अतः वह कर्मोदय से प्राप्त शरीर के आकार के