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तत्त्व मीमांसा 349
अनुसार छोटे- बड़े आकार को धारण करता है। जिस जीव का जितना छोटा या बड़ा शरीर है, उस सारे शरीर में आत्मा के असंख्यात प्रदेश व्याप्त रहते हैं । आत्म प्रदेशों में दीपक की प्रभा के समान संकोच या विस्तार का गुण रहा हुआ है । जैसे दीपक की प्रभा अभी कमरे में व्याप्त है, उस दीपक पर यदि बड़े बर्तन का आवरण डाल दिया जाये, तो वह प्रभा बर्तन के अन्दर ही सिमट जाएगी। यदि बर्तन हटा लिया जाए, तो वह फिर पूरे कमरे में फैल जाती है। इसी तरह आत्म प्रदेश, सब जीवों के बराबर होने पर भी वे हाथी में हाथी शरीर प्रमाण और चींटी में चींटी शरीर प्रमाण हो जाते हैं । जैन दर्शन के अनुसार आत्मा शरीर रुप में न होकर भी स्वदेह परिमाण है ।
यह सामान्य सा नियम है, कि जिस द्रव्य के गुण जहाँ पाये जाते हैं, उसका सद्भाव वहीं होता है, अन्यत्र नहीं । जैसे जहाँ घटादि के रुपादि गुण पाये जाते हैं, वहीं घटादि का अस्तित्व पाया जाता है, अन्यत्र नहीं । वैसे ही आत्मा के ज्ञानादि गुण शरीर के बाहर नहीं देखे जाते । जहाँ गुण नहीं है, वहाँ गुणी नहीं माना जा सकता। अतः आत्मा स्वदेह परिमाण है, स्वदेह से बाहर उसका अस्तित्व नहीं माना जा सकता।
वैदिक दर्शनों में प्रायः आत्मा को अमूर्त्त और व्यापक स्वीकार किया गया है। उपनिषद् में आत्मा के सर्वगत और व्यापक होने का जहाँ उल्लेख है, वहाँ उसके अंगुष्ठमात्र तथा अणुरुप होने का भी कथन हैं। इन दोनों ही विरोधी मतों का जैन दर्शन ने खण्डन किया है। एक ही व्यापक आत्मा से एक ही समय में पृथक्-पृथक् जीवों की पृथक्-पृथक् अनुभूतियों की युक्ति युक्तता को प्रमाणित नहीं किया जा सकता है। तथा उसे अणु मात्र मानने पर एक ही समय में एक शरीर के विभिन्न अंगों में होने वाली पृथक्- पृथक् अनुभूतियों का युक्तिपूर्ण विवेचन नहीं हो सकता। अतः आत्मा को स्वदेह परिमाण मानना ही औचित्य पूर्ण है। इससे दोनों ही समस्याओं का समाधान हो जाता है ।
कर्त्ता और भोक्ता : जैन दर्शन के अनुसार आत्मा कर्मों का कर्त्ता है तथा अपने किए कर्मों के फल का भोक्ता भी है। जैसा कि आगम में कहा गया है
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अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाणय सुहाणय।
अप्पा मित्त ममित्तं च दुपट्ठिओ सुपट्ठिओ | "25
अर्थात् आत्मा सुख और दुःखों का कर्त्ता और उसके फल का भोक्ता है। शुभ में प्रवृत्त अपनी आत्मा अपनी मित्र है, तथा दुःख में प्रवृत्त अपनी आत्मा अपनी शत्रु है। इस निरन्तर परिणामी जगत में प्रत्येक पदार्थ का परिणमन चक्र प्राप्त सामग्री से प्रभावित होकर और अन्य को प्रभावित करके प्रतिक्षण चल रहा है। आत्मा की कोई भी क्रिया चाहे वह मन से विचारात्मक हो, या वचन व्यवहार रूप हो, या शरीर की प्रवृत्ति रुप हो, अपने कार्मण शरीर में और आस-पास के वातावरण में निश्चित असर डालती है। अतः जिस जीव के द्वारा जैसे कर्म किए जाते हैं, उन्हीं के प्रतिफलों का