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338 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
के बीज मिलते हैं, जबकि जैन तत्त्वविचार के बीज नहीं मिलते। इस प्रकार जैन दर्शन का उपनिषद् - प्रतिपादित अनेक मतों से पार्थक्य और स्वातंत्र्य स्वयंसिद्ध है ।
जैन दर्शन में तत्त्व-मीमांसा ( द्रव्य- विचार ) : तत्त्व अथवा द्रव्य का बोध जीवन की प्रक्रिया का मूलभूत अंग है । श्रमण संस्कृति में तत्व निरुपण का उद्देश्य मात्र जिज्ञासा पूर्ति नहीं है, वरन् चारित्र लाभ है। इस ज्ञानधारा का उपयोग, साधक आत्मविशुद्धि के लिए और प्रतिबन्धक तत्त्वों के उच्छेद के लिए करता है ।
जैन धर्म वैज्ञानिक धर्म है । उसका साहित्य निगूढ़ वैज्ञानिक मीमांसा प्रस्तुत करता है। द्रव्य व्यवस्था जैन विज्ञान का विलक्षण आविष्कार है। आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान जैन विज्ञान के अकाट्य तथ्यों की सत्यता को प्रमाणित करता जा रहा है। जैन तत्त्वज्ञान और आधुनिक विज्ञान की समताएँ अनेक बार विद्वानों के विस्मय का विषय बन जाती है। भौतिक साधनों द्वारा तत्त्व अन्वेषण करने वाले वैज्ञानिकों से आत्मज्ञानी महात्मा कहीं आगे भी बढ़ गये, यही तो आत्म साक्षात्कार करने वाले दिव्य द्रष्टाओं का चमत्कार हैं 1
जहाँ दोनों के तत्त्व निरुपण में बहुत कुछ साम्य है, वहीं से दोनों के उद्देश्य में बहुत बड़ा वैषम्य भी है। जैन धर्म के अनुसार तत्त्वज्ञान मुक्ति लाभ का एक अनिवार्य साधन है, जबकि विज्ञान का लक्ष्य विज्ञान ही है । अर्थात् विज्ञान का अन्वेषण केवल यह जानने के लिए होता है, कि वह परम तत्त्व अथवा परमसत्ता क्या है, जिसके आधार पर यह विविध रुपात्मक सृष्टि संरचित है, अवस्थित है और गतिमान है।
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लोक व्यवस्था का आधार ( सत्ता का स्वरूप ) : जैन दर्शन में इस लोक व्यवस्था के मौलिक आधार अथवा परमसत्ता को द्रव्य कहा गया है। अब प्रश्न उठता है, कि ‘द्रव्य क्या है?' द्रव्य शब्द द्रव्य धातु से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है, द्रवित होना, प्रवाहित होना संसार के समस्त पदार्थ उत्पन्न होते हैं, समय पाकर नष्ट होते हैं, फिर भी उनका प्रवाह सतत गति से चलता ही रहता है। इस प्रकार सत्ता का स्वरूप उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्यात्मक कहा गया है।" उत्पन्न होना, नष्ट होना एवं अपने मूल स्वरूप में ध्रुव रहना, यही द्रव्य है।
‘“दव्वं सल्लक्खणियं उप्पाद व्वय धुवत्तसंजुतं । गुणपज्जयासयं वा जंतं भण्णंति सव्वण्हू ॥'
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अर्थात् जो सत् लक्षण वाला है, जो उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य संयुक्त है अथवा जो गुण पर्यायों का आश्रय है, उसे सर्वज्ञ द्रव्य कहते हैं ।
समस्त द्रव्यों का एक सामान्य लक्षण सत् है । सत् अस्तित्व का सूचक है और अस्तीत्व स्वभाव को ही सत्ता कहते हैं । इस प्रकार अस्तित्व सामान्य की दृष्टि से सब द्रव्य एक हो जाते हैं । अर्थात् जगत की एक ही मूल सत्ता है और वह द्रव्य है । प्रत्येक द्रव्य की सामान्य सत्ता उसी द्रव्य में विद्यमान रहती है । सत्ता और द्रव्य पृथक्-पृथक्