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330 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
56. वही, 467 57. तत्त्वार्थसूत्र, वाचक उमास्वाति, 1/10, 11, 12 58. Pr-Dinnaga Buddhist Texts : Intro. P. XVII 59. प्रमाण नय तत्त्वालोक, वादिदेवसूरि 1/18 60. वही, 1/19 61. प्रमाणनयतत्त्व रत्नावतारिका, यशोविजय 1/20 62. प्रमाण मीमांसा, हेमचन्द्रसूरि 1/8 63. प्रमाण नय तत्त्वालोक, वादिदेवसूरि 1/19 64. वही, 1/7, 8 65. वही 1/9 66. रस्सी में साँप का ज्ञान होता है, वह वास्तव में ज्ञान द्वय का मिश्रित रूप है। रस्सी का
प्रत्यक्ष और साँप की स्मृति । दृष्टा इन्द्रिय आदि के दोष से प्रत्यक्ष और स्मृति विवेक
भेद को भूल जाता है, यही अख्याति या विवेकाख्याति है। 67. रस्सी में साँप का ज्ञान होता है, वह सत् भी नहीं है, असत् भी नहीं है, इसलिए
अनिर्वचनीय सद्सत् विलक्षण है। वेदान्ती किसी भी ज्ञान को निर्विषय नहीं मानते, इसलिए इनकी धारणा है, कि भ्रमज्ञान में एक ऐसा पदार्थ उत्पन्न होता है, जिसके बारे
में कुछ कहा नहीं जा सकता। 68. ज्ञान रूप आन्तरिक पदार्थ की बाह्य रूप में प्रतीति होती है, यानी मानसिक विज्ञान ही
बाहर सर्पाकार में परिणत हो जाता है, यह आत्मख्याति है। 69. दृष्टा इन्द्रिय आदि के दोष वश रस्सी में पूर्वानुभूत साँप के गुणों का समारोप करता है,
इसलिए उसे रस्सी सर्पाकार दिखने लगती है। इस प्रकार रस्सी का साँप के रूप में जो
ग्रहण होता है, वह विपरीत ख्याति है। 70. प्रमाणमीमांसा, आचार्य हेमचंद्र, 1/5 71. प्रमाण नयतत्त्वालोक, वादिदेव सूरि 1/13 72. प्रज्ञापना सूत्र, श्यामाचार्य 23/1/1667 73. वही, 23/1/1667 74. प्रमाणनयतत्त्वरत्नावतारिका, यशोविजय 1/7/8 75. प्रज्ञापना सूत्र, श्यामाचार्य, 23/1/1679 76. वही, 23/1/1667 77. अनुयोगद्वार, आर्यरक्षित, सूत्र 126 78. नन्दीसूत्र, देवर्द्धिगणि, सूत्र 25 79. अनुयोगद्वार, आर्यरक्षित, सू. 126 80. जैन सिद्धान्त दीपिका, 8/4 81. प्रमाण मीमांसा, हेमचन्द्रसूरि 1/9, 10 82. प्रमाण नय तत्त्वालोक, वादिदेवसूरि, 2/2 83. प्रवचनसार, कुन्दकुन्दाचार्य, गाथा 58