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ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा)* 311
ही किया गया है, यह उक्त सूत्र की व्याख्या देखने से स्पष्ट हो जाता है। इससे फलित यह होता है, कि अनुयोग का उपमान वर्णन किसी प्राचीन परम्परानुसारी है। अनुयोग के इस विवेचन को हम निम्नलिखित सारीणी से समझ सकते हैं :
उपमान प्रमाण
साधापनीत
वैधोपनीत
किंचित्साधोपनीत प्रायःसाधोपनीत सर्वसाधोपनीत किंचित् प्रायः सर्व
4. आगम प्रमाण ( श्रुत) : मतिज्ञान के पश्चात् परोक्ष ज्ञान के रूप में श्रुत ज्ञान का वर्णन मिलता है। परोक्ष प्रमाण में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान मतिज्ञान की पर्यायें हैं, जो मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से प्रकट होती है। श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जो श्रुत प्रकट होता है, उसका वर्णन सिद्धान्तआगम ग्रन्थों में भगवान महावीर की पवित्र वाणी के रूप में पाया जाता है। तीर्थंकर जिस अर्थ को अपनी दिव्य ध्वनि से प्रकाशित करते हैं, उसका द्वादशांगरूप में ग्रथन गणधरों के द्वारा किया जाता है। यह श्रुत अंगप्रविष्ट कहा जाता है। जो श्रुत अन्य शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा रचा जाता है, वह अंग बाह्य श्रुत है।
अनुयोगद्वार में अगाम के दो भेद किए गए हैं : लौकिक तथा लोकोत्तर।
1. लौकिक आगम : इसके अन्तर्गत जैनेत्तर शास्त्रों का समावेश किया गया है। जैसे महाभारत, रामायण, वेद आदि तथा 72 कला शास्त्रों का समावेश भी उसी में किया है।
2. लोकोत्तर आगम : इसके अन्तर्गत जैन शास्त्रों को रखा गया है। लौकिक आगमों के विषय में कहा गया है, कि अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवों ने अपने स्वच्छन्द मति-विकल्पों से बनाए हैं। किन्तु लोकोत्तर-जैन आगम के विषय में कहा है, कि वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी पुरुषों ने बनाए हैं। जैन दर्शन में श्रुत प्रमाण के नाम से इन्हीं द्वादशांग और द्वादशांगानुसारी अन्य शास्त्रों को आगम या श्रुत की मर्यादा में लिया जाता है। इसके मूलकर्ता तीर्थंकर है और उत्तर कर्ता उनके साक्षात् शिष्य गणधर तथा उत्तरोत्तर कर्ता प्रशिप्य आदि आचार्य परम्परा है। इस व्याख्या में आगम प्रमाण या श्रुत वैदिक परम्परा के 'श्रुति' शब्द की तरह अमुक ग्रन्थों तक ही सीमित रह जाता है। द्वादशांगी के अन्तर्गत आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्या प्रज्ञप्ति, ज्ञाता धर्मकथा, उपासकाध्ययन, अंतकृतदशांग, अनुत्तरोपपादिक दशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद ये बारह भेद हैं। अंग बाह्य श्रुत, विपाक सूत्र और दृष्टिवाद ये बारह भेद हैं। अंगबाह्य श्रुत कालिक, उत्कालिक आदि के भेद से अनेक प्रकार का कहा है।