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ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा)* 305
गौड़पाद ने सिद्धान्ततः सामान्यतोदृष्ट का लक्षण एक ही प्रकार का माना है, किंतु इनके उदाहरण पृथक्-पृथक् हैं।
काल के आधार पर अनुमान के भेद : अनुमान ग्रहणकाल की दृष्टि से तीन प्रकार का होता है, उसे भी शास्त्रकारों ने बताया है - 1. अतीतकालग्रहण, 2. प्रत्युत्पन्न कालग्रहण तथा 3. अनागत कालग्रहण।
1. अतीतकाल ग्रहण : वनों में उगी हुई घास, धान्यों से परिपूर्ण पृथ्वी कुंड, सरोवर, नदी और बड़े-बड़े तालाबों को जल से संपूरित देखकर यह अनुमान करना, कि यहाँ अच्छी वृष्टि हुई है। यह अतीतकालग्रहण साधर्म्यवत् अनुमान है।
2. प्रत्युत्पन्नकाल ग्रहण : भिक्षाचर्या में साधु को गृहस्थों से विशेष प्रचुर आहार-पानी प्राप्त करते हुए देखकर अनुमान किया जाए कि यहाँ सुभिक्ष है। यह प्रत्युत्पन्नकाल ग्रहण अनुमान है।
3. अनागत काल-ग्रहण : आकाश की निर्मलता, पर्वतों का काला दिखाई देना, बिजली सहित मेघों की गर्जना, अनुकूल पवन और संध्या की गाढ़ लालिमा, वारुण-आर्दा, माहेन्द्र-रोहिणी आदि नक्षत्रों में होने वाले अथवा अन्य प्रशस्त उत्पातउल्कापात या दिग्दाहादि को देखकर अनुमान करना कि अच्छी वृष्टि होगी। इसे अनागत काल ग्रहण विशेष्टदृष्ट साधर्म्यवत् अनुमान कहते हैं।
उपर्युक्त लक्षणों का विपर्यय देखने में आवे तो तीनों कालों के ग्रहण में भी विपर्यय हो जाता है। अर्थात् अतीत-कुवृष्टि का वर्तमान दुर्भिक्ष का और अनागत कुवृष्टि का अनुमान होता है, यह भी अनुयोगद्वार में सौदाहरण दिखाया गया है।
कालभेद से तीन प्रकार का अनुमान होता है, इस मत को चरक ने भी स्वीकार किया है। अनुयोगद्वार गत अतीतकालग्रहण और अनागत कालग्रहण के दोनों उदाहरण माठर में पूर्ववत् के उदाहरण रूप से निर्दिष्ट है, जबकि स्वयं अनुयोग में नभ-विकार से वृष्टि के अनुमान को शेषवत् माना है तथा न्यायभाष्यकार ने नदीपूर से भूतवृष्टि के अनुमान को शेषवत् माना है।
अनुमान के अवयव : अनुमान प्रयोग या न्याय वाक्य के कितने अवयव होने चाहिये, इस विषय में मूल आगमों में कुछ नहीं कहा गया है। किन्तु आचार्य भद्रबाहु ने दशवैकालिक नियुक्ति में अनुमानचर्या में न्यायवाक्य के अवयवों की चर्चा की है। यद्यपि संख्या की गणना में उन्होंने पाँच और दश अवयव होने की बात कही है, लेकिन अन्यत्र उन्होंने मात्र उदाहरण या हेतु और उदाहरण से भी अर्थसिद्धि होने की बात कही है। दश अवयवों को भी उन्होंने दो प्रकार से गिनाया है। इस प्रकार भद्रबाहु के मत में अनुमान वाक्य के दो, तीन, पाँच, दश इतने अवयव होते हैं।
प्राचीन वादशास्त्र का अध्ययन करने से ज्ञात होता है, कि प्रारम्भ में किसी साध्य की सिद्धि में हेतु की अपेक्षा दृष्टान्त की सहायता अधिकांशतः ली जाती रही