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298 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
के दो ही आधार हैं-अविसंवादी होना तथा समारोप का व्यवच्छेद करना । स्मृति, शब्द व्यवहार और जगत के समस्त व्यवहार निर्मूल हो जायेंगे। हाँ, जिस-जिस स्मृति में विसंवाद हो उसे अप्रमाण या स्मृत्याभास कहने का मार्ग खुला हुआ है। विस्मरण, संशय और विपर्याय रूपी समारोप का निराकरण स्मृति के द्वारा होता ही है । अतः इस अविसंवादी ज्ञान की प्रमाणता को परोक्ष रूप से स्वीकार करना ही होगा। अनुभव परतन्त्र होने के कारण वह परोक्ष तो कही जा सकती है, लेकिन अप्रमाण नहीं । प्रमाणता या अप्रमाणता का आधार अनुभव स्वातन्त्रय नहीं है। अनुभूत अर्थ को विपय करने के कारण भी उसे अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । अन्यथा अनुभूत अग्नि को विषय करने वाला अनुमान भी प्रमाण नहीं हो सकेगा । अतः स्मृति प्रमाण है, क्योंकि वह स्वविषय में अविसंवादिनी है।
2. प्रत्यभिज्ञान :
"दर्शनस्मरणसम्भवं तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादिसङ्कलनं प्रतिज्ञानम् ।।३
वर्तमान के प्रत्यक्ष और अतीत के स्मरण से होने वाला संकलनात्मक ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है। यह संकलन एकत्व सादृश्य, वैसादृश्य, प्रतियोगी, आपेक्षिक आदि अनेक प्रकार का होता है। वर्तमान का प्रत्यक्ष करके उसके अतीत का स्मरण होने पर 'यह वही है' इस प्रकार का जो मानसिक एकत्व संकलन होता है, वही एकत्व प्रत्यभिज्ञान है। इसी प्रकार 'गवय गाय सदृश होता है।' इस वाक्य को सुनकर कोई वन में जाता है और सामने गाय जैसे पशु को देखकर उस वाक्य का स्मरण करता है और फिर मन में निश्चय करता है, कि वह गवय है। इस प्रकार का सादृश्य विषयक संकलन सादृश्य प्रत्यभिज्ञान है । 'भैंस गाय से विलक्षण होती है।' इस प्रकार के वाक्य को सुनकर, जिस बाड़े में गाय और भैंस दोनों हों, वहाँ जाने वाला मनुष्य गाय से विलक्षण पशु को देखकर उक्त वाक्य को स्मरण करता है और निश्चय करता है, कि यह भैंस है। यह वैसादृश्य विषयक संकलन वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञान है। इसी प्रकार अपने समीपवर्ती मकान के प्रत्यक्ष के बाद दूरवर्ती पर्वत को देखने पर पूर्व का स्मरण करके जो 'यह इससे दूर है।' इस प्रकार का आपेक्षिक ज्ञान होता है, वह आपेक्षिक प्रत्यभिज्ञान है। शाखादि वाला वृक्ष होता है, एक सींग वाला गेंडा होता है, छह पैर वाला भ्रमर होता है, आदि परिचायक शब्दों को सुनकर व्यक्ति को उन पदार्थों को देखने पर और पूर्वोक्त परिचय वाक्यों को स्मरण कर जो 'यह वृक्ष है, यह गेंडा है, यह भ्रमर है, आदि ज्ञान उत्पन्न होते हैं, वे सब अपने विषय में अविसंवादी और समारोप के व्यवच्छेदक होने से प्रमाण है।'
प्रत्यभिज्ञान के विषय में दार्शनिक मतभेद : बौद्ध पदार्थ को क्षणिक मानते हैं। उनके अनुसार एकत्व वास्तविक नहीं है। 'यह वही है' इस वाक्य में 'सः वह'