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ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा ) *297
सकता। गुरु-शिष्यादि सम्बन्ध, पिता-पुत्रभाव तथा अन्य अनेक प्रकार प्रेम, घृणा, करुणा आदि मूलक समस्त जीवन व्यवहार स्मरण के ही आभारी हैं। संस्कृति, सभ्यता और इतिहास की परम्परा स्मरण के सूत्र से ही हम तक आयी है।
स्मृति को अप्रमाण कहने का मूल कारण उसका 'गृहीतग्राही होना' बताया जाता है। उसकी अनुभव परतन्त्रता प्रमाण व्यवहार में बाधक बनती है। अनुभव जिस पदार्थ को जिस रूप में जानता है, स्मृति उससे अधिक को नहीं जानती और न ही उसके किसी नये अंश का ही बोध करती है । वह पूर्वानुभव की मर्यादा में ही सीमित है, बल्कि कभी-कभी तो अनुभव से कम की ही स्मृति होती है ।
वैदिक परम्परा में स्मृति को स्वतंत्र प्रमाण न मानने का एक ही कारण है, कि मनुस्मृति और याज्ञावल्क्य आदि स्मृतियाँ पुरुष विशेष के द्वारा रची गई हैं । यदि एक भी जगह उनका प्रामाण्य स्वीकार कर लिया जाता है, तो वेद की अपौरुषेयता और उसके धर्म विषयक निबौध अन्तिम प्रामाण्य समाप्त हो जाता है। अतः स्मृतियाँ वहीं तक प्रमाण हैं, जहाँ तक वे श्रुति का अनुगमन करती हैं । अर्थात् श्रुति स्वतः प्रमाण है और स्मृतियों में प्रमाणता की छाया श्रुतिमूलक होने से ही पड़ रही है। इस प्रकार जब एक बार स्मृतियों में श्रुति परतन्त्रता के कारण स्वतः प्रामाण्य निषिद्ध हुआ, तब अन्य व्यावहारिक स्मृतियों में उस परतन्त्रता की छाया अनुभवाधीन होने के कारण बराबर चालू रही और यह व्यवस्था हुई, कि जो स्मृतियाँ पूर्वानुभव का अनुगमन करती हैं, वे ही प्रमाण हैं, अनुभव के बाहर की स्मृतियाँ प्रमाण नहीं हो सकती अर्थात् स्मृतियाँ सत्य होकर भी अनुमान की प्रमाणता के बल पर ही अविसंवादिनी सिद्ध हो पाती हैं, अपने बल पर नहीं ।
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भट्ट जयंत ने स्मृति की अप्रमाणता का कारण गृहीत - ग्राहित्व न बताकर उसका अर्थ से उत्पन्न न होना बताया है, किन्तु जब अर्थ की ज्ञान मात्र के प्रति कारणता ही सिद्ध नहीं है, तब अर्थ जन्यता को प्रमाणता का आधार नहीं बनाया जा सकता। प्रमाणता का आधार तो अविसंवादी ही हो सकता है । गृहीत - ग्राही ज्ञान भी यदि अपने विषय में अविसंवादी है, तो उसकी प्रमाणता सुरक्षित है। यदि अर्थ जन्यता के अभाव में स्मृति अप्रमाण होती है, तो अतीत और अनागत को विषय करने वाले अनुमान भी प्रमाण नहीं हो सकेंगे।
जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भी दर्शन ने स्मृति को स्वतन्त्र प्रमाण नहीं माना है। जबकि जगत के समस्त व्यवहार स्मृति की प्रमाणता और अविसंवाद पर ही चल रहे हैं, तब वे उसे प्रमाण कहने का साहस तो नहीं कर सकते, किंतु प्रमा का व्यवहार स्मृति-भिन्न ज्ञान में करना चाहते हैं । धारणा नामक अनुभव पदार्थ को 'इदम्' रूप से जानता है, जबकि संस्कार होने वाली स्मृति उसी पदार्थ को 'तत्' रूप से जानती है। अतः उसे एकान्त रूप से गृहीत ग्राहिणी भी नहीं कह सकते हैं। प्रमाणा