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ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा)* 295
कहने की और शेष स्मृति आदि ज्ञानों को परोक्ष कहने की भेदक रेखा क्या हो सकती है? इसका समाधान परोक्ष के लक्षण से ही हो जाता है। अविशद् ज्ञान अर्थात् अस्पष्ट ज्ञान को ही परोक्ष कहते हैं। विशदता का अर्थ है ज्ञानान्तर निरपेक्षता। जो ज्ञान अपनी उत्पत्ति में किसी दूसरे ज्ञान की अपेक्षा रखता हो अर्थात् जिसमें ज्ञानान्तर का व्यवधान हो, वह ज्ञान विशद् है। ____ पाँच इन्द्रिय और मन के व्यापार से उत्पन्न होने वाले इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष चूँकि केवल इन्द्रिय व्यापार से उत्पन्न होते हैं अन्य किसी ज्ञानान्तर की अपेक्षा नहीं रखते, इसलिए अंशतः विशद् होने से प्रत्यक्ष हैं, जबकि स्मरण अपनी उत्पत्ति में पूर्वानुभाव की, प्रत्यभिज्ञान अपनी उत्पत्ति में स्मरण और प्रत्यक्ष की, तर्क अपनी उत्पत्ति में स्मरण, प्रत्यक्ष और प्रत्यभिज्ञान की, अनुमान अपनी उत्पत्ति में लिङ्ग दर्शन और व्याप्ति स्मरण की तथा श्रुत अपनी उत्पत्ति में शब्द श्रवण और संकेत स्मरण की अपेक्षा रखते हैं, अतः ये सब ज्ञानान्तर सापेक्ष होने के कारण अविशद् है और परोक्ष हैं।
यद्यपि ईहा, अवाय और धारणा ज्ञान अपनी उत्पत्ति में पूर्व-पूर्व प्रतीति की अपेक्षा रखते हैं तथापि ये ज्ञान नवीन-नवीन इन्द्रिय व्यापार से उत्पन्न होते हैं और एक ही पदार्थ की विशेष अवस्थाओं को विषय करने वाले हैं, अतः किसी भिन्न विषयक ज्ञान से व्यवहित नहीं होने के कारण सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष ही है। एक ही ज्ञान दूसरेदुसरे इन्द्रिय व्यापारों से अवग्रह आदि अतिशयों को प्राप्त करता हुआ अनुभव में आता है, अतः ज्ञानान्तर का अव्यवधान यहाँ सिद्ध हो जाता है।
चार्वाक के परोक्ष प्रमाण न मानने की आलोचना : चार्वाक प्रत्यक्ष प्रमाण से भिन्न किसी अन्य परोक्ष प्रमाण की सत्ता नहीं मानता। प्रमाण का लक्षण अविसंवाद करके उसने यह बताया है, कि इन्द्रिय प्रत्यक्ष के सिवाय अन्य ज्ञान सर्वथा अविसंवादी नहीं होते। अनुमानादि प्रमाण बहुत कुछ संभावना पर चलते हैं और ऐसा कहने का कारण यह है, कि देश काल और आकार के भेद से प्रत्येक पदार्थ की अनन्त शक्तियाँ और अभिव्यक्तियाँ होती हैं। उनमें अव्यभिचारी अविनाभाव का ढूंढ़ लेना अत्यंत कठिन है। जो आँवले यहाँ कसायरस वाले देखे जाते हैं, वे देशान्तर और कालान्तर में द्रव्यान्तर का सम्बन्ध होने पर मीठे रस वाले भी हो सकते हैं। कहीं-कहीं धूम साँप की बामी में से निकलता हुआ देखा जाता है। अतः अनुमान का शत प्रतिशत अविसंवादी होना असम्भव बात है। यही बात स्मरणादि प्रमाणों के सम्बन्ध में है।
जैन दार्शनिक चार्वाक के इस मत का खण्डन करते हुए कहते हैं, कि अनुमान प्रमाण को माने बिना प्रमाण और प्रमाणाभास का विवेक भी नहीं किया जा सकता।
अविसंवाद के आधार पर अमुक ज्ञानों में प्रमाणता की व्यवस्था करना और अमुक ज्ञानों को अविसंवाद के अभाव में अप्रमाण कहना भी तो अनुमान ही है। दूसरे की