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300 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
अलग प्रमाण माना जाता है, तो विलक्षणता को ग्रहण करने वाला भी अलग प्रमाण मानना पड़ेगा। इसी तरह दूरत्व, उच्चत्व, निम्नत्व, हस्वत्व और दीर्घत्व को ग्रहण करने वाला भी अलग प्रमाण मानना पड़ेगा। इस तरह प्रमाणों की संख्या न जाने कहाँ तक पहुँचेगी। सादृश्य-वैसादृश्य आदि ज्ञानों का समावेश प्रत्यभिज्ञान में हो जाता है, अतएव उपमान को अलग प्रमाण नहीं मानना चाहिये, वह प्रत्यभिज्ञान ही है।
3. तर्क : ___“उपलम्भानुपलम्भ निमित्तं व्याप्तिज्ञानम् उहः।"17
आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार व्याप्ति के ज्ञान को तर्क कहते हैं। साध्य और साधन के सार्वकालिक, सार्वदेशिक और सार्ववैयक्तिक अविनाभाव सम्बन्ध को व्याप्ति कहते हैं। अविनाभाव अर्थात् साध्य के बिना साधन का न होना, साधन का साध्य के होने पर ही होना, अभाव में बिल्कुल नहीं होना, इस नियम को सर्वोपसंहार रूप से ग्रहण करना तर्क है। सर्वप्रथम व्यक्ति कार्य और कारण का प्रत्यक्ष करता है
और उनके बार-बार प्रत्यक्ष होने पर वह उसके अन्वय सम्बन्ध की भूमिका की ओर झुकता है। फिर साध्य के अभाव में साधन का अभाव देखकर व्यतिरेक के निश्चय के द्वारा उस अन्वय ज्ञान को निश्चयात्मक रूप देता है। जैसे किसी व्यक्ति ने सर्वप्रथम रसोईघर में अग्नि देखी तथा अग्नि से उत्पन्न होता हुआ धुंआ भी देखा, फिर किसी तालाब में अग्नि के अभाव में धुएँ का भी अभाव देखा। फिर रसोईघर में अग्नि से धुंआ निकलता हुआ देखकर वह निश्चय करता है, कि अग्नि कारण है और धुंआ कार्य है। यह उपलम्भ-अनुपलम्भ निमित्तक सर्वोपसंहार करने वाला विचार तर्क है। इसमें प्रत्यक्ष, स्मरण और सादृश्य प्रत्यभिज्ञान कारण होते हैं। इन सबकी पृष्ठभूमि पर 'जहाँ-जहाँ, जब-जब धूम होता है, वहाँ-वहाँ, तब-तब अग्नि अवश्य होती है। इस प्रकार का एक मानसिक विकल्प उत्पन्न होता है, जिसे ऊह या तर्क कहते हैं।
केवल प्रत्यक्ष के विषयभूत प्रमेयों में भी अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा अविनाभाव का निश्चय करना तर्क का कार्य है। इसीलिए उपलम्भ और अनुपलम्भ शब्द से साध्य और साधन का सद्भाव प्रत्यक्ष और अभाव प्रत्यक्ष ही नहीं लिया जाता है, अपितु साध्य और साधन का दृढ़तर सद्भाव निश्चय और अभाव निश्चय लिया जाता है। वह निश्चय चाहे प्रत्यक्ष से हो या प्रत्यक्षातिरिक्त अन्य प्रमाणों से।
तर्क के विषय में दार्शनिक मतभेद : मीमांसक तर्क को विचारात्मक ज्ञान व्यापार मानते हैं और उसके लिए 'ऊह' शब्द का प्रयोग करते हैं। लेकिन उसे प्रमाण के अन्तर्गत सम्मिलित नहीं करते। उनका मन्तव्य है, कि तर्क स्वयं प्रमाण न होकर किसी प्रमाण का सहायक हो सकता है।
न्याय दर्शन में तर्क को 16 पदार्थों में गिनाया गया है, तदपि उसे प्रमाण नहीं माना है। उनका कहना है, कि तर्क तत्त्वज्ञान के लिए उपयोगी है और प्रमाणों का