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ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा) * 289
दो प्रकार का है - अंतगत और मध्यगत। अंतगत अवधिज्ञान तीन प्रकार का कहा गया है - 1. पुरतोऽन्तगत, 2. मार्गतोऽन्तगत, 3. पार्श्वतोऽन्तगत।
अ. पुरतोऽन्तगत अवधिज्ञान बेटरी की तरह आगे के प्रदेश को प्रकाशित करते
हुए साथ चलता है। ब. मार्गतोऽन्तगत अवधिज्ञान बगल के पदार्थों का ज्ञान कराते हुए चलता है। स. पार्श्वतोऽन्तगत ज्ञान पिछे चलने वाला होता है। मध्यगत अवधिज्ञान ज्ञाता को चारों और के पदार्थों का ज्ञान कराते हुए चलता
2. अनानुगामिक : जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्ति स्थान को छोड़ देने पर कायम नहीं रहता, साथ नहीं चलता वह अनानुगामिक होता है।
____3. वर्धमान : जो अविधज्ञान उत्पत्ति काल में अल्पविषय होने पर भी परिणाम-शुद्धि के बढ़ते जाने से क्रमशः अधिकाधिक विषयक होता जाता है, उसे वर्धमान कहते है। जैसे-दियासलाई या अरणि-आदि से उत्पन्न आग की चिनगारी बहुत छोटी होते हुए भी अधिकाधिक सूखे ईंधन को पाकर क्रमशः बढ़ती जाती है।
4. हीयमान : जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय अधिक विषयक होने पर भी परिणाम शुद्धि कम होते जाने से क्रमशः अल्प-अल्प विषयक होता जाता है, उसे हीयमान कहते हैं। जैसे परिमित दाह्य वस्तुओं में लगी हुई आग नया ईंधन न मिलने से क्रमशः घटती जाती है।
5. प्रतिपाति : जो अवधिज्ञान जन्मान्तर होने पर भी आत्मा में कायम रहता है या केवलज्ञान की उत्पत्ति तक अथवा आजन्म बना रहता है, उसे प्रतिपाति कहते हैं। जैसे जीव के अनेक शुभ-अशुभ कर्म संस्कार दूसरे जन्म में भी साथ जाते हैं या आजन्म रहते हैं।
6. अप्रतिपाति : जलतरङ्ग की तरह जो अवधिज्ञान कभी घटता है, कभी बढ़ता है, कभी आविर्भूत होता है और कभी तिरोहित होता है, उसे अप्रतिपाति कहते
यद्यपि तीर्थंकर मात्र को अथवा किसी अन्य मनुष्य को भी अवधिज्ञान जन्म से प्राप्त होता है, तथापि उसे गुण प्रत्ययिक ही समझना चाहिये। क्योंकि योग्य गुण न होने पर अवधिज्ञान आजन्म नहीं रहता, जैसे कि देव या नरकगति में रहता है। 2. मन:पर्यय ज्ञान : "मणपजवनाणं पुण, जणमणपरिचिंतिअत्थपागडणं। माणुसखित्तनिबद्धं, गुणपच्चइअं चरित्तवओ॥
से तं मणपज्जवनाणं॥"13 अर्थात् मनःपर्ययज्ञान सभी जीवों के मन में सोचे हुए अर्थ को प्रकट करने