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272 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
प्रमाण उत्पत्ति की दृष्टि से तो परतः ही होता है लकिन ज्ञप्ति की दृष्टि से प्रामाण्य स्वतः और परतः दो प्रकार का होता है, जैसा कि वादिदेव सूरि लिखते हैं 'ज्ञप्तौ तु स्वतः परतश्च'
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जैन मतानुसार प्रामाण्य निश्चय दो प्रकार से होता है - 1. स्वतः प्रामाण्य निश्चय, 2. परतः प्रामाण्य निश्चय ।
1. स्वतः प्रामाण्य निश्चय : प्रमेय का ज्ञान होने के साथ ही उसकी सत्यता या प्रामाणिकता का भी निश्चय हो जाए, तो वह स्वतः प्रामाण्य है। जिन कारणों से प्रमेय ज्ञान होता है, उन्हीं से यदि उसकी प्रमाणिकता का निश्चय हो जाए तो वह स्वतः प्रमाण्य है। विषय (ज्ञेय) की परिचित दशा में ज्ञान स्वतः प्रामाण्य होता है । जिसमें प्रथम ज्ञान की प्रमाणिकता जानने के लिए अन्य विशेष कारणों की आवश्यकता नहीं होती। जैसे- गुरु अपने शिष्य को प्रतिदिन देखते हैं, तो अपने शिष्य को देखते ही 'वह राम है' ऐसा निश्चयात्मक ज्ञान हो जाता है । यह स्वतः प्रामाण्य है।
2. परतः प्रामाण्य निश्चय : वस्तु का ज्ञान होने के साथ-साथ उसकी प्रामाणिकता का ज्ञान न हो, तब दूसरी कारण सामग्री से संवादक प्रत्यय से उसका निश्चय किया जाता है, यह परतः निश्चय है । जिन कारणों से प्रमेय का ज्ञान हो, उनसे अन्य विशेष कारणों के द्वारा जब उस ज्ञान की प्रामाणिकता जानी जाती है, वह परतः प्रामाण्य है। विषय (ज्ञेय) की अपरिचित दशा में प्रामाण्य का निश्चय परतः होता है। जैसे - एक बालक जिसने शेर के बारे में सुना तो बहुत है, लेकिन कभी देखा नहीं । जब वह चिड़ियाघर में पहली बार शेर को देखता है, तो वह यह निश्चित रूप से नहीं जानता है, कि यही शेर है । वह अपने पिता से पूछता है, कि यह कौनसा जानवर है या क्या यह शेर है? तब उसके ज्ञान की प्रामाणिकता परकारण (पिता) के द्वारा सिद्ध होती है, अतः यह परतः प्रामाण्य है । यह विशेष कारण सामग्री दो प्रकार की होती है
1. संवादक प्रमाण एवं 2. बाधक प्रमाण का अभाव। संवादक प्रमाण प्रमेय की विद्यमानता को सिद्ध करता है तथा उसकी विद्यमानता को बाधित करने वाले कारणों
का अभाव ।
प्रामाण्य के इस समस्त विवेचन को हम निम्न चार्ट के द्वारा सरलता से समझ सकते हैं
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प्रामाण्य
अप्रामाण्य
उत् त्तिपरतः
Į
प्रामाण्य ज्ञ. प्त (निश्चय)
स्वतः
परतः
संवादक प्रमाण
अबाधक प्रमाण