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276 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
परिणाम है। समारोप ज्ञान में अज्ञान (यथार्थ ज्ञान का अभाव) की मुख्यता होती है, इसलिए मुख्यवृत्ति से उसे ज्ञानावरण के उदय का परिणाम कहा जाता है।
अयथार्थ ज्ञान के दो प्रकार : अयथार्थ ज्ञान दो प्रकार का होता है- 1. आध्यात्मिक व 2. व्यावहारिक।
आध्यात्मिक विपर्यय को मिथ्यात्व और आध्यात्मिक संशय को मिश्र-मोह कहा जाता है। इनका उद्भव आत्मा की मोह दशा से होता है। इनसे श्रद्धा विकृत होती है।
व्यावहारिक संशय और विपर्यय का नाम है 'समारोप'।' यह ज्ञानावरण के उदय से होता है। इससे ज्ञान यथार्थ नहीं होता।
प्रथम पक्ष दृष्टि मोह है और दूसरा पक्ष ज्ञान मोह । दृष्टि मोह मिथ्या दृष्टि के ही होता है। ज्ञान मोह सम्यक् दृष्टि और मिथ्या दृष्टि दोनों के होता है। दृष्टि मोह मिथ्यात्व है, अज्ञान नहीं। मिथ्यात्व मोह जनित होता है। अज्ञान (मिथ्यादृष्टि का ज्ञान) ज्ञानावरण विलय (क्षयोपशम) जनित होता है। श्रद्धा का विपर्यय मिथ्यात्व से होता है, अज्ञान से नहीं।
जिस प्रकार मिथ्यात्व सम्यक् श्रद्धा का विपर्यय है, वैसे अज्ञान ज्ञान का विपर्यय नहीं है। ज्ञान और अज्ञान में स्वरूप भेद नहीं, अपितु अधिकारी भेद है। सम्यग्दृष्टि का ज्ञान ज्ञान कहलाता है और मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञान।'
मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्यात्व-सहचरित होता है, इसलिए उसे अज्ञान की संज्ञा दी जाती है। सम्यग्दृष्टि का ज्ञान मिथ्यात्व सहचरित नहीं होता है. इसलिए उसकी संज्ञा ज्ञान रहती है। तीन अज्ञान-मति, श्रुत और विभंग तथा तीन ज्ञान मति, श्रुत, और अवधि- ये विपर्यय नहीं है। इन दोनों त्रिकों की क्षायोपशमिकता (ज्ञानावरण-विलयजन्य योग्यता) में द्विरुपता नहीं है। दोनों में मिथ्यात्व के अस्तित्व व अनस्तित्व का ही अन्तर है।
___ मिथ्या दृष्टि में मिथ्या दर्शन और सम्यग्दर्शन दोनों होते हैं, फिर भी वह मिथ्या दृष्टि सम्यग्मिथ्या दृष्टि नहीं बनता। वह भूमिका इससे ऊँची है। मिश्रदृष्टि व्यक्ति को केवल एक तत्त्व या तत्त्वांश में सन्देह होता है। मिथ्या दृष्टि का सभी तत्त्वों में विपर्यय हो सकता है।
मिश्र-दृष्टि तत्त्व के प्रति संशयित दशा है और मिथ्यादृष्टि विपरीत संज्ञान। संशयित दशा में अतत्त्व का अभिनिवेश नहीं होता और विपरीत संज्ञान में वह होता है। अतः इसका पहली भूमिका का अधिकारी अंशतः सम्यग्दर्शनी होते हुए भी तीसरी भूमिका के अधिकारी की भाँति सम्यग्मिथ्या-दृष्टि नहीं कहलाता। मिथ्यादृष्टि के साथ सम्यग्दर्शन का उल्लेख नहीं होता। यह उसके दृष्टि विपर्यय की प्रधानता का परिणाम है, किंतु इसका यह अर्थ नहीं, कि उसमें सम्यग्दर्शन का अंश नहीं होता।