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ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा)* 281
लिए निम्नलिखित तर्क दिए गए हैं - 1. यदि चक्षु प्राप्यकारी है, तो उसे स्वयं में लगे हुए अंजन को देख लेना
चाहिये। 2. यदि चक्षु प्राप्यकारी है, तो वह स्पर्शन इन्द्रिय की तरह समीपवर्ती वृक्ष की
शाखा और दूरवर्ती चन्द्रमा को एक साथ नहीं देख सकती। 3. यह कोई आवश्यक नहीं है, कि जो कारण वह पदार्थ से संयुक्त होकर ही
अपना काम करे। चुम्बक दूर से ही लोहे को खींच लेता है। 4. चक्षु अभ्रक, काँस्य और स्फटिक आदि से व्यवहित पदार्थों के रूप को भी
देख लेती है, जबकि प्राप्यकारी स्पर्शनादि इन्द्रियाँ उनके स्पर्श आदि को नहीं जान सकती। चक्षु को तेजोद्रव्य कहना भी प्रतीति विरुद्ध है, क्योंकि एक तो तेजोद्रव्य, स्वतंत्र द्रव्य नहीं है, दूसरे उष्ण स्पर्श और भास्कर
(सूर्य) रूप इसमें नहीं पाया जाता। चक्षु को प्राप्यकारी मानने पर पदार्थ में दूर और निकट व्यवहार नहीं हो सकता। इसी प्रकार संशय और विपर्यय ज्ञान भी नहीं हो सकेंगे।
आज का विज्ञान मानता है, कि आँख एक प्रकार का केमरा है। उसमें पदार्थों की किरणें प्रतिबिम्बित होती है। किरणों के प्रतिबिम्ब पड़ने से ज्ञान तन्तु उबुद्ध होते हैं और फिर चक्षु उन पदार्थों को देखते हैं। चक्षु में आए हुए प्रतिबिम्ब का कार्य केवल चेतना को उबुद्ध करना है। वह स्वयं दिखाई नहीं देता। इस प्रणाली में यह बात तो स्पष्ट है, कि चक्षु की योग्य देश में स्थित पदार्थ के प्रतिबिम्ब पड़ने की क्रिया तो केवल बटन को दबाने की क्रिया के समान है, जो विद्युत शक्ति को प्रवाहित कर देता है। अतः इस प्रक्रिया से जैनों के चक्षु को अप्राप्यकारी मानने के विचार में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती।
श्रोत्र अप्राप्यकारी नहीं : बौद्ध श्रौत को भी अप्राप्यकारी मानते हैं। उनका विचार है, कि शब्द भी दूर से ही सुना जाता है। वे चक्षु और मन के साथ श्रोत्र के भी अप्राप्यकारी होने का स्पष्ट निर्देश करते हैं। यदि श्रोत्र प्राप्यकारी होता तो शब्द में दूर और निकट व्यवहार नहीं होना चाहिये। किन्तु जब श्रोत्र कान में घुसे हुए मच्छर के शब्द को सुन लेता है, तो अप्राप्यकारी नहीं हो सकता। प्राप्यकारी घ्राण इन्द्रिय के विषयभूत गन्ध में भी कमल की गन्ध दूर है, मालती की गन्ध पास है, इत्यादि व्यवहार देखा जाता है। यदि चक्षु की तरह श्रोत्र भी अप्राप्यकारी है, तो जैसे रूप में दिशा और देश का संशय नहीं होता, उसी प्रकार शब्द में भी नहीं होना चाहिये था, किन्तु शब्द में यह किस दिशा से शब्द आया है?' इस प्रकार का संशय देखा जाता है। अतः श्रोत्र को भी स्पर्शनादि इन्द्रियों की तरह प्राप्यकारी ही मानना चाहिये। जब शब्द वातावरण में उत्पन्न होता हुआ क्रमशः कान के भीतर पहुँचता है, तभी सुनाई देता
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