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ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा)* 275
का उल्लेख नहीं करता, इसलिए यह संशय से भी भिन्न है। संशय में व्यक्ति का उल्लेख होता है। अनध्यवसाय जाति सामान्य विषयक है। इसमें स्पर्श किसका है, प्रमेय का नामोल्लेख नहीं होता।
अनध्यवसाय वास्तव में अयथार्थ नहीं है, अपूर्ण है। वस्तु जैसी है, उसे विपरीत नहीं जानता, वरन् उसी रुप में जानने में अक्षम है। इसलिए इसे अयथार्थ ज्ञान की कोटि में रखा है। अनध्यवसाय अयथार्थ ज्ञान उसी दशा में होता है, जबकि यह आलेचन मात्र रह जाता है। यदि यह आगे बढे तो अवग्रह के अन्तर्गत आ जाएगा। ___अयथार्थ ज्ञान के हेतु : एक ही प्रमाता का ज्ञान कभी प्रमाण बन जाता है और कभी अप्रमाण, यह क्यों? जैन दृष्टि में इसका समाधान यह है, कि यह सामग्री के दोष से होता है। प्रमाता का ज्ञान निरावरण होने पर ऐसी स्थिति नहीं बनती। उसका ज्ञान अप्रमाण नहीं होता। यह स्थिति उसके सावरण ज्ञान की दशा में बनती है।
ज्ञान की सामग्री दो प्रकार की होती है- 1. आन्तरिक और 2. बाह्य।
आन्तरिक सामग्री है, प्रमाता के ज्ञानावरण का विलय। अनावरण के तारतम्य के अनपात में जानने की न्यनाधिक शक्ति होती है। जान के दो कम हैं-1 आत्म प्रत्यक्ष एवं 2. आत्म परोक्ष। ___आत्म प्रत्यक्ष जितनी योग्यता विकसित होने पर जानने के लिए बाह्य सामग्री की अपेक्षा नहीं होती। आत्म परोक्ष ज्ञान की दशा में बाह्य सामग्री का महत्वपूर्ण स्थान होता है। इन्द्रिय और मन के द्वारा होने वाला ज्ञान बाह्य सामग्री सापेक्ष होता है। पौद्गलिक इन्द्रियाँ, पौद्गलिक मन, आलोक, उचित सामीप्य या दूरत्व, दिग्, देश, काल आदि बाह्य सामग्री के अंग हैं।
__अयथार्थ ज्ञान के निमित्त प्रमाता और बाह्य सामग्री दोनों है। आवरण विलय मन्द होता है और बाह्य सामग्री दोषपूर्ण होती है, तब अयथार्थ ज्ञान होता है। आवरण विलय की मन्दता में बाहूय सामग्री की स्थिति महत्वपूर्ण होती है। उससे ज्ञान की स्थिाति में परिवर्तन आता है। तात्पर्य यह है, कि अयथार्थ ज्ञान का निमित्ति ज्ञान मोह है और ज्ञान मोह का कारण दोषपूर्ण सामग्री है। परोक्षज्ञान दशा में चेतना का विकास होने पर भी अदृष्ट सामग्री के अभाव में यथार्थ बोध नहीं होता। अर्थ बोध ज्ञान की योग्यता से नहीं होता, अपितु उसके व्यापार से होता है। सिद्धान्त की भाषा में लब्धि (ज्ञानावरण विलय जन्य आत्म योग्यता) शुद्ध होता है। उसका उपयोग शुद्ध या अशुद्ध दोनों प्रकार का होता है। दोषपूर्ण ज्ञान सामग्री ज्ञानावरण के उदय का निमित्त बनती है। ज्ञानावरण के उदय से प्रमाता मूढ़ बन जाता है। यही कारण है, कि वह ज्ञानकार्य में प्रवृत्त होने पर भी ज्ञेय की यथार्थता को नहीं जान पाता।
संशय और विपर्यय के काल में प्रमाता जो जानता है, वह ज्ञानावरण का परिणाम नहीं, अपितु वह यथार्थ ज्ञान नहीं जान पाता, वह अज्ञान ज्ञानावरण का