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270 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
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14. प्रशस्तपाद
प्रत्यक्ष अनुमान 15. दिग्नाग
प्रत्यक्ष अनुमान
अनुमान x x 16. धर्मकीर्ति
प्रत्यक्ष अनुमान 17. चार्वाक
प्रत्यक्ष इस प्रकार समस्त भारतीय दर्शनों में नैयायिकादि सम्मत चार प्रमाणों को ही स्वीकार किया गया है। कछ ने उन्हीं में से तीन अथवा दो प्रमाणों को ही स्वीकार किया है। यद्यपि जैन दार्शनिक विवेचन में प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रमाणों को स्वीकार करके जैन दृष्टि से उनका मौलिक विवेचन किया गया है। तथापि आगमिकों ने ज्ञान मीमांसा को ही महत्व देकर पंचज्ञानों का ही विशिष्ट विवेचन किया है तथा प्रमाण मीमांसा को पृथक् ही रखकर नैयायिकादि सम्मत चार प्रमाणों को स्वीकार कर लिया है। प्रमाण चर्चा व ज्ञान चर्चा में कोई समन्वय स्थापित नहीं किया है। पंचज्ञानों में ही सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के भेद के द्वारा जैनागमिकों ने वही प्रयोजन सिद्ध किया है, जो दूसरे दर्शनों में प्रमाण और अप्रमाण के विभाग के द्वारा सिद्ध किया है। अर्थात् जैन दर्शन में प्रमाण या अप्रमाण जैसे विशेषणों को प्रयुक्त किए बिना ही प्रथम तीन ज्ञानों में अज्ञान-विपर्यय-मिथ्यात्व की तथा सम्यक्त्व की संभावना मानी है तथा अन्तिम दो में एकान्त सम्यक्त्व ही बताया है। इस प्रकार ज्ञानों को प्रमाण या अप्रमाण न कह करके भी उन विशेषणों का प्रयोजन तो दूसरी तरह से निष्पन्न कर ही दिया है।
तात्पर्य यह है, कि जो ज्ञान हम प्राप्त करते हैं तथा जिन साधनों के द्वारा प्राप्त करते हैं, वे दोनों ही सत्य हैं या नहीं? उनकी सत्यता की कसौटी क्या है? प्रमाण की प्रामाणिकता अथवा सत्यता का आधार क्या है? यह जानना आवश्यक है।
प्रामाण्य का नियामक तत्त्व (प्रमाण्यवाद) : प्रमाण का प्रमाणत्व क्या है? प्रमाण सत्य होता है, इसमें कोई द्वैध नहीं, फिर भी सत्य की कसौटी विभिन्न दार्शनिकों ने भिन्न-भिन्न मानी है। जैन मतानुसार ज्ञान की सत्यता या प्रामाण्य का नियामक तत्त्व है-यथार्थ्य। यथार्थ्य का अर्थ है-ज्ञान की तथ्य या वस्तु के साथ संगति। प्रमेय पदार्थ जैसा है, उसे वैसा ही जानना प्रमाण का प्रामाण्य है। वादिदेव सूरि ने कहा है -
"ज्ञानस्य प्रमेया व्यभिचारित्वं प्रमाण्यम्।
तदितरत्व प्रामाण्यम्॥ अर्थात् प्रमेय से अव्यभिचारी होना अथवा प्रमेय जैसा है, उसे वैसा ही जानना, यही ज्ञान की प्रमाणता है। इसके विपरीत प्रमेय जैसा नहीं है, वैसा जानना अप्रमाणता। प्रमेय के साथ ज्ञान की संगति हो, वह सत्य ज्ञान है तथा प्रमेय के साथ ज्ञान की संगति न हो वह असत्य ज्ञान है।
अबाधित्व, अप्रसिद्ध अर्थख्यापन या अपूर्व अर्थ प्रापण, अविसंवादिता, या संवादी प्रवृत्ति, प्रवृत्ति सामर्थ्य या क्रियात्मक उपयोगिता- ये सत्य की कसौटियां हैं, जो भिन्न-भिन्न दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत और निराकृत होती रही है।