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जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 215
समय लगता है। आम की गुठली में महावृक्ष के रूप में परिणत होने तथा हजारों आम उत्पन्न करने का स्वभाव है, परन्तु फिर भी उसे बोने के साथ ही फल नहीं लगते, एक निश्चित काल पाकर ही वृक्ष विकसित होकर फल प्रदान करता है।
इस प्रकार प्रत्येक वस्तु को उत्पन्न करने वाला, स्थिर करने वाला, संहार करने वाला, संयोग में वियोग और वियोग में संयोग करने वाला काल ही है।
2. स्वभाव : प्रत्येक वस्तु का अपना-अपना स्वभाव होता है। उसी के अनुरूप उसमें परिणमन होता है। सतर्क का शुभ फल मिलता है, बुरे कर्म का बुरा फल मिलता है। यह कर्म के स्वभाव पर निर्भर करता है। आम की गुठली में अंकुरित होकर वृक्ष बनने का स्वभाव है। अतः माली का पुरुषार्थ काम आता है, मालिक का भाग्य फल देता है और काल के बल से अंकुर आदि बनते हैं। बबूल कभी आम उत्पन्न नहीं कर सकता है।
3. कर्म : प्रत्येक जीव का जीवन स्वयं उसी के कर्मों द्वारा निर्मित होता है। एक ही मां के दो बच्चे हैं -एक सुन्दर व बुद्धिमान तथा दूसरा कुरुप एवं मूर्ख । ऐसा क्यों? काल, पुरुषार्थ, स्वभाव ये दोनों में थे, फिर भेद क्यों? एक ही माँ-बाप का रज और वीर्य एक ही गर्भ से उत्पन्न एक ही वातावरण, फिर अन्तर कैसा? यह सब कर्म का प्रभाव है। जिस जीव ने पूर्व जन्म में अच्छे कर्म किए, उसको अच्छे संयोग प्राप्त हुए और जिसने बुरे कर्म किए उसको प्रतिकूल संयोग मिले।
4. पुरुषार्थ : संसार में परिभ्रमण कराने वाला कर्म है, किन्तु मुक्त कराने की सामर्थ्य कर्म में नहीं है। मुक्ति प्राप्त करने में पुरुषार्थ की सत्ता चलती है। पूर्व जन्म के अच्छे उद्योग और शुभ कर्मों का बन्ध होने पर भी वर्तमान के उद्योग के बिना पूर्व संचित शुभ कर्म भी इष्ट फल नहीं दे सकते। उसके लिए पुरुषार्थ आवश्यक है। आटा, पानी और आग सब तैयार होने पर भी भाग्य-भरोसे बैठे रहने से भोजन नहीं बनता। परोसा हुआ भोजन भी बिना हाथ चलाए मुँह में नहीं जाएगा। वर्तमान में पुरुषार्थ किए बिना कोई काम नहीं हो सकता है।
नियति का निर्माता भी पुरुषार्थ ही है, किंतु निर्माण के पश्चात् वह पूर्ण स्वतंत्र है। फिर पुरुषार्थ का उस पर बिल्कुल भी जोर नहीं चलता।
5. नियति : निकाचित बन्ध वाले कर्म समूह नियति है। जो कर्म आवश्यक रूप से भोगना पड़े, जिसकी स्थिति अथवा विपाक में कुछ भी परिवर्तन नहीं किया जा सके। उस कर्म के बन्धन को निकाचित बंध कहते हैं। जिस कार्य का फल तद्नुकूल पुरुषार्थ से विपरीत दिशा में जाए, उसको नियति का कार्य मानना चाहिये। पुरुषार्थ सिर्फ नियति के समक्ष निष्फल होता है।
इस प्रकार किसी भी कर्म का फल प्राप्त करने के लिए इन पाँच कारणों की आवश्यकता होती है।