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जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 217
कर्म बन्ध के कारणों का सर्वथा अभाव हो जाता है। जैसे बीज जल जाने पर उससे पुनः अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही कर्म रूपी बीज के सम्पूर्ण जल जाने पर संसार रूपी अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती। इससे स्पष्ट है, कि जो आत्मा कर्मों से बंधा हो वह उनसे मुक्त भी हो सकता है।
कर्मवाद एक अपूर्व देन : कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन की और विशेष रूप से जैन दर्शन की विश्व को एक अपूर्व और अलौकिक देन है। मानव जीवन विघ्न-बाधा, दुःख और विपत्तियों से भरा हुआ है। इनसे मन चंचल हो जाता है, मानव घबरा जाता है। व्यक्ति बाह्य निमित्त कारणों को दुःख का प्रधान कारण समझकर उन्हीं को कोसता है। ऐसी जटिल परिस्थिति में कर्मवाद का सिद्धान्त ही उनका सही मार्ग प्रशस्त कर सकता है। उसका प्रथम घोष है - आत्मा अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। सुख-दुःख उसी के किए हुए कर्मों का फल है। कोई भी बाहरी शक्ति किसी भी जीव को सुख दुःख नहीं दे सकती। वह तो सिर्फ निमित्त मात्र बन सकती है। इस विश्वास के दृढ़ होने पर आत्मा दुःख और विपत्ति के समय घबराती नहीं वरन् धैर्यपूर्वक सामना करती है। इस प्रकार कर्मवाद हमें निराशा से बचाता है, दुःख सहने की शक्ति देता है और मन को शांत एवं स्थिर रखकर प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति प्रदान करता है।
इस सिद्धान्त ने मानव को अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में दीपक की लौ की तरह नहीं, अपितु ध्रुव की तरह अटल रहने की प्ररेणा दी है। जन-जन के मन में से श्वानवृत्ति को हटाकर सिंहवृत्ति जागृत की है। कर्मवाद की महत्ता के सम्बन्ध में डॉक्टर मेक्समूलर ने कहा है -
___ 'यह तो निश्चित है, कि कर्म मत का असर मनुष्य जीवन पर बेहद हुआ है। यदि किसी मनुष्य को यह मालूम पड़े, कि वर्तमान अपराध के सिवाय भी मुझको जो कुछ भोगना पड़ता है, वह मेरे पूर्व जन्म के कर्म का ही फल है, तो वह पुराने कर्ज को चुकाने वाले मनुष्य की तरह शान्त भाव से उस कष्ट को सहन कर लेगा और वह मनुष्य इतना भी जानता हो, कि सहनशीलता से पुराना कर्ज चुकाया जा सकता है तथा उसी से भविष्य के लिए निधि की समृद्धि एकत्र की जा सकती है, तो उसको भलाई के रास्ते पर चलने की प्रेरणा अपने आप ही होगी। अच्छा या बुरा कोई भी कर्म नष्ट नहीं होता, यह नीतिशास्त्र का मत और पदार्थ शास्त्र का बलसंरक्षण सम्बन्धी मत समान ही है। दोनों मतों का आशय इतना ही है, कि किसी का नाश नहीं होता। किसी भी नीतिशिक्षा के अस्तीत्व के सम्बन्ध में कितनी ही शंका क्यों न हो पर यह निर्विवाद सिद्ध है, कि कर्ममत सबसे अधिक जगह माना जाता है। उससे लाखों मनुष्यों के कष्ट कम हुए हैं और उसी मत से मनुष्यों को वर्तमान संकट झेलने की शक्ति पैदा करने तथा भविष्य जीवन को सुधारने में उत्तेजन मिला है।163