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222* जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
रहे और अपने आपको ही सही मानते रहे। एक नेत्र वाले व्यक्ति ने उन सबकी बातें सुनी और बोला भाइयों आप सबने हाथी के एक-एक अवयव को पकड़कर वैसा ही हाथी समझ लिया है। अर्थात् आप सबका ज्ञान आंशिक सत्य है। वास्तव में हाथी का सही स्वरूप तब बनता है, जबकि आप सबकी बातों को जोड़ दिया जाए और आप सब एक दूसरे की बात से सहमत हों। एक-एक अवयव अलग-अलग रहकर शरीर नहीं कहा जा सकता। पूरे अवयव संयुक्त रहकर ही शरीर की संज्ञा पाते हैं। वैसे ही आप सब लोगों का संयुक्त कथन ही हाथी का सही रूप है। पृथक्-पृथक् रूप से सभी कथन मिथ्या हैं। अलग-अलग अंश वस्तु का समग्र स्वरूप नहीं है, अपितु अंशों का समन्वित स्वरूप ही वस्तु है। यह समन्वित दृष्टि ही अनेकान्त अथवा स्यावाद है। इस दृष्टि से देखने पर खण्डित और एकांगी वस्तु के स्थान पर हमें सर्वांगीण परिपूर्ण वस्तु दृष्टिगोचर होने लगती है। अनेकान्त दृष्टि विरोध का शमन करने वाली है, इसी कारण वह पूर्ण सत्य तक ले जाती है।
अनेकान्तवाद की इस विशिष्टता को हृदयंगम करके ही जैन दार्शनिकों ने उसे अपने विचार का मूलाधार बनाया है। जैनाचार्यों ने अपनी समन्वयात्मक उदार भावना का परिचय देते हुए कहा है - एकान्त वस्तुगत धर्म नहीं, वरन् बुद्धिगत कल्पना है। जब बुद्धि शुद्ध होती है, तो एकान्त का नाम-निशान नहीं रहता। दार्शनिकों की भी समस्त दृष्टियाँ अनेकान्त दृष्टि में उसी प्रकार विलीन हो जाती है, जैसे विभिन्न दिशाओं से आने वाली सरिताएँ सागर में एकाकार हो जाती है।
प्रसिद्ध विद्वान् उपाध्याय यशोविजयजी के शब्दों में कहा जा सकता है - 'सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं कर सकता। वह एकनयात्मक दर्शनों को इस प्रकार वात्सल्य की दृष्टि से देखता है, जैसे कोई पिता अपने पुत्रों को देखता है। अनेकान्तवादी न किसी को न्यून और न किसी को अधिक समझता है-उसका सबके प्रति समभाव होता है। वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहलाने का अधिकारी वही है, जो अनेकान्तवाद का अवलम्बन लेकर समस्त दर्शनों पर समभाव रखता हो। मध्यस्थभाव रहने पर शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा कोटि-कोटि शास्त्रों को पढ़ लेने पर भी कोई लाभ नहीं। ___अतएव एकान्त के गन्दले पोखर से दूर रहकर अनेकान्त के शीतल स्वच्छ सरोवर में अवगाहन करना ही उचित है। स्याद्वाद का उदार दृष्टिकोण अपनाने से समस्त दर्शनों का सहज ही समन्वय साधा जा सकता है।
अन्य दर्शनों पर अनेकान्त का प्रभाव : अनेकान्तवाद सत्य का पर्यायवाची दर्शन है। यद्यपि कतिपय भारतीय दार्शनिकों ने अपनी एकान्त विचारधारा का समर्थन करते हुए अनेकान्तवाद का विरोध भी किया है। फिर भी यह निःसन्देह कहा जा सकता है, कि सभी भारतीय दर्शनों पर उसकी छाप न्यूनाधिक रूप में अंकित हुई है।